Sunday 30 December 2012

आप बताएं ! नायक या खलनायक ...


दिल्ली गैंगरेप पीड़ित बेटी की मौत ने देश को हिलाकर रख दिया है। इस पूरे घटनाक्रम को देखता हूं तो मुझे बलात्कारियों से कहीं ज्यादा गुस्सा देश की कमजोर सरकार से है। सोनिया गांधी महिला हैं, मैं उन पर सख्त टिप्पणी नहीं करना चाहता, लेकिन मुझे पक्का भरोसा है कि देश के बर्बादी की जब भी कभी कहानी लिखी जाएगी तो सोनिया गांधी का  नाम सबसे ऊपर  होगा। उन्होंने देश के प्रमुख पदों पर ऐसे कमजोर, गिजगिज, निरीह आदमी को बैठा दिया, जिससे देश की ऐसी तैसी हो जाए। प्रधानमंत्री बनाया मनमोहन सिंह को और गृहमंत्री बना दिया सुशील कुमार शिंदे को। अब ये दोनों कितने सक्षम है, देश की जनता जानती है। बहरहाल इन बदबूदार चेहरों की कल्पना मात्र से सिर शर्म से झुक जाता है पर ये चिकने घढ़े इस सब से बेपरवाह अपने राजनीतिक दाँव-पेचों से असल मुद्दों से जनता को भटकाने का खेल खेलते रहे हैं।

नाराणय दत्त तिवारी
आइये आज आपको मिलाते हैं कुछ ऐसे लोगों से जो हमारे बीच में ही हैं। ये देश की अगुवाई करते रहे हैं, इनके नाम के आगे हमें माननीय लगाने को मजबूर होना पड़ता है। ये ऐसे शख्स हैं जो होने वाले मुख्यमंत्री को शपथ दिलाते हैं। पहले इन्हीं की बात कर लें, नाम है नारायण दत्त तिवारी। इन्हें अगर हम रसिया तिवारी कहें तो गलत नहीं होगा। आंध्र प्रदेश का राज्यपाल रहते हुए इनका ऐसा वीडियो बाहर आया, जिससे पूरा देश सन्न रह गया। आपको  पता है इनकी उम्र 80 के पार हो चुकी है। हम सब जानते हैं कि उज्जवला शर्मा और उनके बेटे रोहित शर्मा को न्याय के लिए कानून का सहारा लेना पड़ा। आखिर में डीएनए टेस्ट के बाद ये साफ हो गया कि रोहित शेखर कांग्रेस के वयोवृद्ध नेता नारायण दत्त तिवारी का बेटा है। तिवारी की करतूतों पर देश भले शर्मिंदा हो, पर तिवारी शर्मिंदा होंगे, लगता नहीं है।

गोपाल कांडा
हरियाणा के पूर्वमंत्री गोपाल कांडा सत्ता के गलियारे का काफी रसूखदार शख्स है। आलीशान हवेलियों में शानो शौकत से रहने के आदी कांडा ने देश की बेटी गीतिका का जीना मुहाल कर दिया था। इसके व्यवहार से वो इतना परेशान हो गई थी कि इसके कंपनी की नौकरी छोड़कर चली गई। लेकिन इस हैवान ने उसे परेशान करना नहीं छोड़ा। हालत ये हो गई कि बेचारी गीतिका फांसी के फंदे पर झूल गई। हालाकि बेटी गीतिका ने जाते जाते एक सुसाइड नोट छोड़ दिया, जिससे इस काले करतूतों वाले मंत्री का असली चेहरा देश के सामने आ जाए। गोपाल कांडा का असली चेहरा सामने आया, उसे हरियाणा के मंत्रिमंडल से बाहर किया गया, बाद में वो जेल गया। लेकिन जेल में इसके लिए वीआईपी सुविधाएं उपलब्ध थीं। एक ओर देश बलात्कारियों के लिए फांसी मांग रहा है, वहीं देश के अफसर ऐसे लोगों को जेल में भी वीआईपी सुविधा देकर जी हजूरी करते रहते हैं।

चंद्र मोहन उर्फ चांद मोहम्मद
ये शख्स किसी पहचान को मोहताज नहीं है। हरियाणा के उप मुख्यमंत्री रहे हैं। लेकिन उप मुख्यमंत्री के तौर पर इन्होंने क्या काम किया, ये तो देश को नहीं पता। लेकिन शादी शुदा होते हुए भी दूसरी शादी करने के लिए धर्म परिवर्तन किया और चंद्र मोहन से बन गए चांद मोहम्मद। इन्होंने अपनी प्रेमिका अनुराधा बाली का भी धर्म परिवर्तन कराया और वो हो गई फिजा। दोनों ने शादी कर ली। मगर ये शादी ज्यादा दिन नहीं चली, महीने दो महीने में ही तलाक हो गया। शादी टूटने के बाद कुछ दिन तक तो अनुराधा उर्फ फिजा काफी आक्रामक रही। वो चंद्रमोहन और उसके परिवार को लगातार कठघरे में खड़ा करती रही। बाद मे ना जाने क्या हुआ कि फिजा का शव उसके घर में ही पंखे से लटका मिला। आज अनुराधा बाली उर्फ़ फिज़ा की संदिग्ध मौत ने राजनेताओं की चाल, चेहरा और चरित्र को बेपर्दा कर दिया ! अपनी हवस और मौजमस्ती के लिये ये नेता अपने माँ-बाप,भाई बहन , बीवी बच्चे और यहाँ तक कि दीन और इमान को भी छोडने में रति भर नही झिझके, तो सोचिये कि किस तरह के शासन/प्रशासन की हम इनसे उम्मीद लगाए बैठे हैं ?

अमर मणि त्रिपाठी
उत्तर प्रदेश के बड़े और ताकतवर नेताओं में अमरमणि त्रिपाठी का नाम भी शुमार है। कवियित्री मधुमिता शुक्ला की हत्या में अमरमणि और उनकी पत्नी दोनों आरोपी हैं। कोर्ट ने दोनों को उम्रकैद की सजा सुनाई है। इस मामले की जांच सीबीआई ने की थी और जांच में यह बात सामने आई कि हत्या के वक्त मधुमिता गर्भवती थी और अमरमणि के इशारे पर ही उनके गुर्गे पांडेय और राय उसके घर जाकर मधुमिता को गोली मारी थी। सुनवाई के दौरान सीबीआई ने जो तथ्य अदालत में रखे थे, कोर्ट ने उससे सहमति जताई थी। इसी आधार पर कोर्ट ने अमरमणि उनकी पत्नी और उनके दो गुर्गों कुल मिलाकर चार लोगों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई है। तत्कालीन सरकार में मंत्री रहे अमरमणि त्रिपाठी से मधुमिता के काफी करीबी रिश्ते थे। बताया जाता है कि मधुमिता मां बनने वाली है यह बात जैसे ही अमरमणि को पता चली उसने अपनी पत्नी संग मिलकर उसकी हत्या करवा दी। क्योंकि मधुमिता को अमरमणि के काले कारनामों का पता था, उसने धमकी दी थी कि अगर वो उनसे शादी नहीं करते तो उनके सारे राज उगल देगी। जिसके बाद मधुमिता को खतरनाक मौत मिल गयी।

स्वामी नित्यानंद
खद्दरधारी नेताओं पर तो बलात्कार के आरोप काफी समय से लगते रहे हैं, लेकिन बलात्कार के मामले में भगवाधारी भी पीछे नहीं रहे हैं। इसमें स्वामी नित्यानंद की तो बकायदा सीडी बाहर आ गई थी, जिसमें वो एक अभिनेत्री के साथ अश्लील हरकत करते हुए कैमरे में कैद हो गए थे। इस सीड़ी के बाद काफी बवाल मचा था, उनके खिलाफ हजारों लोग गुस्से में सड़कों पर निकल आए, जगह जगह उनका पुतला  फूंका जाने लगा। उनके आश्रम में छापे पड़े, लेकिन स्वामी नित्यानंद भूमिगत हो गए थे। वैसे नित्यानंद पर महिलाओं के साथ अश्लीलता का आरोप कोई नया नहीं है। उन पर अमेरिकी महिला के साथ पांच साल पहले उसका यौन शोषण करने का आरोप लगा था। इस आरोप से भी जनता भड़क गयी थी और कन्नड़ संगठनों ने प्रदर्शन भी किया था। नित्‍यानंद उस अमेरिकी महिला से कहते थे कि हम भगवान है तुम भगवान के साथ सेक्‍स कर रही हो, यह पाप नहीं है। तुमको स्‍वर्ग प्राप्‍त होगा। हम शंकर है तुम मेरी पार्वती। वाह रे स्वामी जी...


एसपीएस राठौर
सीनियर आईपीएस अफसर एसपीएस राठौर हरियाणा के पूर्व डीजीपी रहे हैं। इन पर जिस तरह का आरोप लगा है, अगर मजबूत कानून होता तो हो सकता  है कि अब तक ये वाकई सजा पा चुके होते।  एक नाबालिग लड़की रुचिका इनके उत्पीड़न से इतना परेशान हो गई कि उसे आत्महत्या करने को मजबूर होना पड़ गया। आरोप तो यहां तक है कि राठौर हमेशा पुलिस के रौब में रहे, यही वजह है कि उनके इशारे पर रुचिका के भाई को भी कई बार थाने पर बुलाकर प्रताड़ित किया जाता रहा है। रुचिका के भाई आशु ने आरोप लगाया था कि छेड़छाड़ मामले के बाद राठौड़ के इशारे पर उसके खिलाफ वाहन चोरी का झूठा मुकदमा दर्ज किया गया और हरियाणा पुलिस ने उसे प्रताड़ित किया। राठौर उस समय आईजी रैंक का आधिकारी था। इस मामले में सीबीआई की भूमिका पर भी उंगली उठी। मामले की जांच सीबीआई को ही सौंपी गई थी, लगभग सभी आरोपों में सीबीआई ने रटारटाया जवाब दिया कि जो आरोप  लगाए गए हैं, उनका कोई साक्ष्य नहीं मिला। वो तो भला हो रुचिका की सहेली और उसके परिवार का जो बगैर डरे, इस मामले  में लड़ते रहे, जिससे कुछ दिन के लिए ही सही कम से कम राठौर को जेल की हवा तो खानी पड़ी, वैसे तो राठौर पर कोई असर नहीं, वो तो कोर्ट में भी मुस्कुराता खड़ा रहता था।


स्वामी चिन्मयानंद
नित्यानंद का तो वीडियो मार्केट में आ गया था, लेकिन स्वामी चिन्मयानंद का मामला बिल्कुल अलग है। यहां तो स्वामी की शिष्या ने ही बकायदा थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई है। रिपोर्ट में स्वामी पर बलात्कार, अपहरण और गला दबाकर जान से मारने की बात कही गई है। अब इन स्वामी को भी जान लें, ये स्वामी कोई और नहीं बल्कि बीजेपी नेता, पूर्व गृह राज्यमंत्री स्वामी चिन्मयानंद हैं। इन पर गंभीर आरोप लगाने वाली इनकी ही शिष्या है, जिनका नाम है साध्वी चिदर्पिता। साध्वी बनने से पहले इनका नाम कोमल गुप्ता था। कोमल की बचपन से ही ईश्वर में अटूट आस्था थी। ये मां के साथ लगभग हर शाम मंदिर जाती थी। इसी बीच मां की सहेली ने हरिद्वार में भागवत कथा का आयोजन किया और इन्हें भी वहां मां के साथ जाने का अवसर मिला। उसी समय कोमल गुप्ता का स्वामी चिन्मयानन्द से परिचय हुआ। स्वामी जी उस समय जौनपुर से सांसद थे। तब कोमल की उम्र लगभग बीस वर्ष थी। स्वामी को ना जाने कोमल में क्या बात नजर आया कि वे कोमल को संन्यास के लिये मानसिक रूप से तैयार करने लगे। मैं कह नहीं सकता कि कोमल नासमझ थी या वो सन्यास लेकर नई दुनिया में खो जाना चाहती थी। बहरहाल कुछ भी हो कोमल ने स्वामी की बातों में हामी भरी और सन्यास के लिए राजी हो गई। स्वामी चिन्मयानंद ने कोमल को दीक्षा देने के साथ ही उसका नाम बदल कर साध्वी चितर्पिता कर दिया। दीक्षा के बाद साध्वी का नया ठिकाना बना शाहजहांपुर का मुमुक्ष आश्रम। चिन्मयानंद ने साध्वी को दीक्षा तो दी पर उसके सन्यास की बात को टालते रहे। ऐसा क्यों, इस रहस्य से स्वामी और साध्वी ही पर्दा हटा सकते हैं, बहरहाल स्वामी चिन्मयानंद के खिलाफ बलात्कार का रिपोर्ट लिखाने के बाद कोमल ने एक पत्रकार से शादी कर ली और वैवाहिक जीवन में हैं।

शशिभूषण सुशील
शशिभूषण सुशील सामान्य व्यक्ति नहीं है, ये आईएएस अधिकारी हैं और उत्तर प्रदेश में तैनात हैं। इन अफसरों की जिम्मेदारी  होती है कि कानून की रक्षा कराएं और कानून तोड़ने वालों को सजा दिलाएं। लेकिन इस अफसर ने तो मर्यादा की सारी सीमाएं ही तोड़ दीं। यूपी में तकनीकी शिक्षा विभाग में विशेष सचिव के पद पर तैनात वर्ष 2001 बैच के आईएएस अधिकारी शशिभूषण सुशील के खिलाफ एक युवती की शिकायत पर भारतीय दंड विधान की धारा 354, 376, 506 और 511 के तहत मुकदमा दर्ज किया गया। पीडित लडकी के साथ ही सफर कर रही उसकी मां द्वारा दर्ज करायी गयी रिपोर्ट के मुताबिक भूषण गाजियाबाद स्टेशन से लखनऊ मेल ट्रेन के एसी सेकेंड डिब्बे में सवार हुए। आरोप है कि सूचना-प्रौद्योगिकी क्षेत्र में काम करने वाली महिला की मां जब शौचालय गयी तो भूषण ने अकेली पाकर उस युवती से बलात्कार की कोशिश की, इसकी शिकायत ट्रेन में तैनात सुरक्षा जवानों तथा कंडक्टर से भी की गयी। ट्रेन के लखनऊ पहुंचने पर राजकीय रेलवे पुलिस (जीआरपी) ने भूषण से करीब चार घंटे तक पूछताछ की और फिर उन्हें गिरफ्तार कर लिया। उन्हें बाद में स्थानीय रेलवे अदालत में पेश किया गया जहां से उन्हें 14 दिन की न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। सबसे ज्यादा शर्मनाक  बात तो ये रही कि इस आरोपी आईएएस  को बचाने के लिए यूपी के दर्जनो आईएएस स्टेशन पहुंच गए। इसके बाद मुख्यमंत्री अखिलेश यादव आरोपी को बचाने के लिए स्टेशन गए आईएएस की रिपोर्ट मांगी तो सब बगले झांकने लगे।

महिपाल मदेरणा
राजस्थान के पूर्वमंत्री महिपाल मदेरणा का नाम भी उनके काम की वजह से लोग नहीं जानते, बल्कि उनका नाम भी भंवरी देवी हत्याकांड के बाद चर्चा में आया। मॉडल से नर्स बनी भंवरी देवी के हत्‍याकांड ने पूरे देश की राजनीति को हिला कर रख दिया था। पहले सेक्‍स फिर ब्‍लू फिल्‍म की सीडी बनाकर ब्‍लैकमेल करने की बात को लेकर भंवरी देवी की हत्‍या कर दी गई। कहा जा रहा  है कि उसके शव को चूना बनाने वाले भट्ठे में फेंक दिया गया था। भंवरी देवी के लापता होने के बाद जब इसकी जांच शुरु हुई तो परत दर परत सारे मामले सामने आ गये। पुलिस की छानबीन के बाद मामला सीबीआई को सौंपा गया। सीबीआई ने इस मामले में राजस्‍थान के जल संस्‍थान मंत्री महिपाल मदेरणा और कांग्रेस विधायक मलखान सिंह को गिरफ्तार किया। सीबीआई ने जब भंवरी के बैंक एकाउंट को खंगला तो उसके होश उड़ गये। भंवरी देवी के बैंक लॉकर से सैकड़ों सीडियां बरामद हुई जिसमें राजस्‍थान के बड़े नेता और अधिकारियों के आपत्तिजनक फिल्‍म थे। इतना ही नहीं राजस्‍थान के बड़े नेताओं के साथ भंवरी देवी विदेश यात्रा पर भी जा चुकी थी। मगर भंवरी का अंजाम क्‍या हुआ यह पूरा देश जानता है । सीबीआई के ह‍त्‍थे चढ़े भाड़े के अपराधियों ने कबूला कि मदेरणा और मलखान के कहने पर ही उन लोगों ने भंवरी की हत्‍या की थी।


रवींद्र  प्रधान
मेरठ के चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय की प्रवक्ता कविता रानी बुलंदशहर स्थित घंसुरपुर गांव में दीवाली की छुट्टी बिताकर 23 अक्टूबर 2006 को मेरठ के लिए रवाना हुई थी, लेकिन वह इंदिरा गांधी वर्किंग विमिन हॉस्टल नहीं पहुंची। उसका मोबाइल फोन भी स्विच ऑफ हो गया था। इस संबंध में कविता रानी के भाई सतीश ने हॉस्टल पहुंचकर पता किया तो उसके कमरे के दरवाजे पर ताला लगा था। सतीश ने 31 अक्टूबर 2006 को बुलंदशहर स्थित स्याना कोतवाली में कविता की गुमशुदगी दर्ज कराई थी। बाद में स्याना पुलिस ने मामला मेरठ पुलिस के पास स्थानांतरित कर दिया। पुलिस ने मेरठ स्थित हॉस्टल में कविता के कमरे का ताला उसके भाई सतीश की मौजूदगी में तोड़ा। जहां धमकी भरे लेटर और एक डायरी मिली। जिसमें कुछ राजनेताओं के नाम और नंबर थे। पुलिस ने रवींद्र प्रधान, सुलतान, योगेश, अशोक और रवींद्र को गिरफ्तार किया। इनकी गिरफ्तारी के बाद कुछ राजनेताओं के नाम भी उछले। जिसकी वजह से राजनीतिक हलकों में हड़कंप मच गया था। 10 जनवरी 2007 को केस सीबीआई को ट्रांसफर कर दिया गया। सीबीआई ने रवींद्र प्रधान, सुलतान, योगेश,अशोक और रविन्द्र के खिलाफ चार्जशीट कोर्ट में पेश कर दी। केस की सुनवाई के दौरान 29 मई 2008 को डासना जेल में रवींद्र प्रधान की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई थी। गिरफ्तारी के बाद आरोपी सुलतान ने पुलिस और सीबीआई के सामने कविता की हत्या करने का जुर्म कबूल किया। शव को गाजियाबाद स्थित नहर में फेंकने की बाद बताई थी। पुलिस ने कविता का शव बरामद करने के लिए नहर में कई दिनों तक छानबीन की थी। मगर शव बरामद नहीं हुआ था। ( तस्वीर उपलब्ध नहीं )

आनंद सेन
फैजाबाद में कानून की छात्रा शशि भी एक मंत्री आनंद सेन के प्रेम के चंगुल में फंस गयी थी। जिसका खामियाजा भी शशि को अपनी दर्दनाक मौत से चुकाना पड़ा। 22 अक्टूबर 2007 को फैजाबाद में अपने घर से गायब हुई शशि के बारे में लंबी छानबीन के बाद पता चला कि उसकी हत्या कर दी गई है। शशि के पिता एक राजनीतिक कार्यकर्ता थे। राजनीतिक पृष्ठभूमि के परिवार की तेज तर्रार शशि की आंखों में विधानसभा से चुनाव लड़कर विधायक बनने का सपना था, और इस सपने को साकार करने का सपना शशि को दिखाया खुद आनंद सेन ने। इसी सपने के जरिए शशि आनंद सेन के करीब होती चली गई। नतीजा ये हुआ उसकी दर्दनाक मौत हो गई। फिलहाल आनंद सेन को सजा हुई और वह जमानत पर बाहर भी निकल आये हैं मगर आजतक शशि का शव तक बरामद नहीं हो सका।

सुशील शर्मा
नैना साहनी केस ने पूरे देश को हिला कर रख दिया था। हालांकि यह मामला राजनीति से ज्‍यादा जुड़ा हुआ नहीं था मगर नैना का मित्र सुशील दिल्ली प्रदेश युवक कांग्रेस का अध्यक्ष था। घटना वर्ष 1995 की है। सुशील ने नैना की हत्‍या कर दी और उसके शव के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। उसके बाद सुशील ने नैना के शव के टुकड़ों को तंदूर में डालकर जला दिया। फिलहाल इस मामले में सुशील को सजा हो चुकी है।

ये तो सिर्फ चुनिंदा घटनाएं हैं। इन घटनाओं से साफ है कि सत्‍ता से नजदीकियां रखने वाली महिलाओं का अंजाम हमेशा बुरा ही हुआ है। पिछले कुछ सालों में जिन महिलाओं की कहानियां सामने आईं हैं वो सत्‍ता और राजनेताओं के करीब तो रहीं मगर उनका अंजाम काफी बुरा हुआ। यहां तक की इन दरिंदे राजनेताओं ने उन्‍हें अपनी जिंदगी से ही हाथ धोने को मजबूर कर दिया। कुछ मामलों में अदालत ने नेताओं को सजा सुनाई तो कुछ पर मुकदमा अभी जारी है। कुछ की तो अभी पुलिसिया जांच चल रही है। दिल्ली गैंगरेप के बाद देश भर में गुस्सा है। बलात्कारियों को फांसी की बात की जा रही है। मेरा भी मानना है कि इन्हें वाकई सख्त सजा होनी चाहिए, लेकिन मैं इस मत का हूं कि अगर कानून पहले से सख्त होता तो ये लोग भी बच नहीं पाते। इन सबको सजा होती तो आज लोगों की हिम्मत ना होती कि वो देश की बेटी के साथ ऐसा सुलूक करते। बहरहाल अब एक उम्मीद जगी है कि सख्त कानून बनेगा और देश की बेटियां सुरक्षित रहेंगी।







Friday 28 December 2012

शिरड़ी : बाबा के वीआईपी ...


बात बड़े दिन यानि इसी 25 दिसंबर की है। बच्चों के स्कूल की छुट्टी थी,  मुझे भी आफिस से छुट्टी मिल गई, सोचा चलो बड़े दिन पर कुछ बड़ा करते हैं, शिरड़ी चल कर बाबा का दर्शन कर आते हैं। कार्यक्रम ये बना कि 23 दिसंबर की रात कर्नाटक एक्सप्रेस से दिल्ली से चलें  अगले दिन दोपहर तीन बजे के करीब वहां पहुंच जाऊंगा। चूंकि 25 दिसंबर को बड़ा दिन होने की वजह से बाबा का दर्शन आसान नहीं होगा, लिहाजा 24 को ही बाबा का दर्शन कर रात्रि विश्राम किया जाए और अगले दिन शनि महाराज के यहां हाजिरी लगाकर शाम को वापसी की ट्रेन पकड़ी जाए। पर ऐसा हुआ नहीं, क्योंकि कुहरे की वजह से हमारी ट्रेन लगभग आठ घंटे लेट हो गई। लिहाजा अब 24 तारीख को तो कुछ होना नहीं था, 25 को दर्शन और वापसी भी थी। क्या करता, पूरा सफर मैने वीआईपी दर्शन के इंतजाम में काट दिया।

वैसे मैं शिरड़ी पहले भी कई बार गया हूं और हर बार वीआईपी रास्ते से ही दर्शन करता रहा हूं। सच कहूं तो मुझे पता भी नहीं था कि यहां लाइन में लगकर दर्शन किया कैसे जाता है। जब भी दर्शन करने गया तो कोई ना कोई साथ होता था, दो तीन कमरो से होता हुआ ना जाने कहां से वो सीधे बाबा के दाहिनी ओर लाकर खड़ा कर देते थे, पलक झपकते दर्शन और मंदिर परिसर से रवाना हो जाता था। इस बार जैसे-जैसे ट्रेन लेट हो रही थी, मेरी धड़कने बढ़ती जा रहीं थीं, मैं सोच रहा था कि कैसे बाबा के और शनि महाराज के दर्शन हो पाएंगे। आप यकीन करें, मै पूरे रास्ते फोन पर लगा रहा कि किसी तरह वीआईपी दर्शन का इंतजाम हो जाए। वैसे ये बड़ा काम नहीं है, हमारे चैनल के रिपोर्टर ही आसानी से पास बनवा देते हैं। लेकिन इस बार दर्शन की तारीख "बड़े दिन" यानि 25 दिसंबर को पड़ गई। इस समय शिरड़ी में बहुत ज्यादा भीड़ है,  इसलिए वहां पास बनाने पर ही रोक लगी हुई थी।

अब मैं जिससे भी बात करुं, सभी हांथ खड़े कर देते कि इस वक्त तो बहुत मुश्किल है। किसी का पास नहीं बन रहा है। बताया गया कि जहां से पास बनते हैं वो आफिस ही बंद कर दिया गया है, इसलिेए पास बनना तो संभव नहीं है। मेरा मन ये मानने को तैयार ही नहीं था कि वीआईपी  दर्शन पूरी तरह बंद होगा। मुझे लगा कि हो सकता है कि हिंदी पत्रकारों की यहां ज्यादा ना चलती हो, लिहाजा मैने मराठी चैनल के भी कुछ पत्रकारों से बात की, पर सबने हाथ खड़े कर दिए। हां मराठी चैनल के एक बंदे ने ये जरूर कहा कि " भाई साहब मुश्किल है, पर हम कोशिश करेंगे, कुछ ना कुछ इंतजाम जरूर होगा "। उसने तो ये बात बड़े ही विश्वास से की, लेकिन मुझे ही भरोसा नहीं हुआ।

पत्रकार बिरादरी, नेता, अफसर सबको  फोन खटखटा चुका तो मुझे ध्यान आया कि अरे मेरा  सहपाठी ही बहुत बड़ा साईं भक्त है। वो साईं संस्थान के ट्रस्टियों में भी शामिल है, ये काम तो उनके लिए बहुत आसान होगा। मैने उन्हें फोन मिलाया, काफी देर तक तो उनका  फोन ही बंद रहा, लेकिन हमारी ट्रेन शिरड़ी पहुंचती, उसके घंटे भर पहले मेरी बात हो गई। उन्होंने कहाकि मैं पांच मिनट में आपको दोबारा फोन करता हूं। मुझे लगा कि अब बाबा ने हमारी बात सुन ली और बेहतर इंतजाम हो ही जाएगा। थोड़ी देर बाद उनका फोन आया, बोले आपको वहां एक यादव जी मिलेंगे, वो आपका सारा इंतजाम करा देंगे। उनका फोन नंबर भी उन्होंने दिया और कहा कि आप एक बार बात कर लें।

दरअसल जिस यादव को मेरे हवाले किया गया था, मै उनसे पहले मिल चुका था, वो वहां बिजली विभाग के कर्मचारी थे और वाकई उन्होंने मुझे एक बार बहुत बढिया दर्शन कराया भी था। लेकिन साल भर पहले हार्ड अटैक से वो नहीं रहे, अब उनकी जगह पर उनका बेटा नौकरी कर रहा है। बेटे से मेरी बात हुई, उसने दर्शन की बात बाद में की, पहले एक होटल की बात की और कहा कि मैने होटल ओके कर दिया है। हालांकि  मैं दिल्ली से चलने के पहले ही नेट के जरिए होटल बुक करा चुका था, उसका कन्फर्मेशन भी मेरे पास आ चुका  था। लेकिन मुझे लगा कि होटल लेने पर ये बंदा और मन से जुटेगा। इसलिए मैने मना नहीं किया और उसके बुक कराए होटल में ही जाने का इरादा कर लिया। ट्रेन रात 10.30 बजे कोपरगांव पहुंची और टैक्सी से लगभग 11 बजे हम शिरड़ी पहुंच गए। यादव जी का बेटा मुझे होटल में मिला, हम कमरे में पहुंचे तो मैने उसे बताया कि मुझे कल ही बाबा और शनि महाराज के दर्शन करने हैं, शाम को वापसी भी है। वापसी की ट्रेन मनमाड़ से है, लिहाजा हमें दोपहर दो बजे के बाद शिरड़ी को छोड़ना होगा। उसने कहा कि "सर मैने तो कुछ दिन पहले ही यहां ज्वाइन किया है, मैं तो दर्शन कराने में कोई मदद नहीं कर सकता, मुझे लगा कि आपको रात में होटल बुक कराने में दिक्कत होगी, लिहाजा मैने ये इंतजाम कर दिया " उसकी बात सुनकर मैं सन्न रह गया।

बहरहाल हम लगभग 26 घंटे ट्रेन का सफर तय करके वहां पहुंचे थे, ट्रेन के एसी 2 बोगी में हमारी बर्थ थी, इसलिए यात्रा आरामदेय ही रही है, लेकिन लंबे सफर से थकान तो स्वाभाविक है। फिर भी मैने बच्चों से कहा कि अब एक ही चारा है, हम सब अभी यानि रात में ही स्नान ध्यान करें और रात में ही 12 बजे लाइन में लग जाते हैं। बाबा के दर्शन को लेकर सभी में उत्साह था, लिहाजा सबने कहा कि ये ठीक है। हम ये बात कर ही रहे थे कि हमारी छोटी बेटी तो स्नान भी कर आईं और बताया कि बाथरूम में गरम पानी नहीं आ रहा है, लेकिन पानी ठीक ठीक है, नहाया जा सकता है। बहरहाल हम सब घंटे भर में ही तैयार होकर नंगे पांव मंदिर की ओर रवाना हो गए। होटल से पैदल मात्र 10 मिनट का रास्ता था मंदिर का, वहां पहुंचे तो दूसरे दर्शनार्थियों का उत्साह देखकर हमारे अँदर भी ऊर्जा का संचार होने लगा।

हमें हाल नंबर तीन में जगह मिली। मतलब हमसे पहले हाल नंबर एक और दो में लोग पहुंच कर लाइन में लग चुके थे। एक हाल में लगभग सात आठ सौ लोग तो जरूर होते होंगे। अनुमान के मुताबिक हमारे आगे लगभग दो हजार लोग होंगे। बारह सवा बाहर बजे रात हम लाइन में लग चुके थे, मंदिर खुलने का समय था सुबह साढे चार बजे। मंदिर  खुलते  ही कांकड आरती होती है ये आप सब जानते हैं। अब मैं इत्मीनान में था कि आरती यहां हाल में लगे टीवी स्क्रिन पर देखेंगे, सुबह छह सात बजे तक हमें दर्शन भी मिल जाएगा। लेकिन बाबा हमारा बहुत इम्तिहान ले चुके थे, जैसे ही मंदिर खुला, लोगों को कांकड़ आरती के लिए मुख्य हाल में जाने की इजाजत मिली, हाल नंबर एक और दो के बाद मेरे हाल का नंबर भी आ गया और हम भी पूरे परिवार के साथ बाबा के सामने मौजूद हो गए और कांकड़ आरती में मैं पहली बार शामिल हुआ।

सुबह के छह नहीं बजे होंगे और हम कांकड आरती, दर्शन, मंदिर का प्रसाद वगैरह लेकर बाहर आ चुके थे। स्वाभाविक है कि पूरी रात के बाद जब भव्य दर्शन करने में कामयाबी मिली थी, तो उत्साह तो था ही। बच्चों से बात होने लगी तो मन से एक बात निकली कि इसके पहले भी कई बार बाबा ने यहां बुलाया तो जरूर, मगर इतना भव्य दर्शन पहली बार दिया है।  फिर मैने वहीं मंदिर में कान पकड़ कर तय किया कि अब आगे से कभी वीआईपी दर्शन के लिए मारा मारी नहीं करुंगा। जब इतनी भीड़ के बाद भी बाबा इतनी सहजता से दर्शन दिए हैं तो सामान्य दिनों में तो क्या कहने। तब तो और आसानी से दर्शन होंगे। यही बात करते हुए हम होटल पहुंचे और देखिए सबकी हिम्मत,  रात भर जागने के बाद भी सबकी यही राय थी कि अभी इसी वक्त शनि महाराज का दर्शन करने निकल पड़ते हैं।

मुझे भी लगा कि बात तो सही है, अगर बिस्तर पर गए तो आलस होगा और जल्दी उठना  मुश्किल हो जाएगा। बस हम सबने एक चाय पी और तुरंत होटल से बाहर आ गए। बाहर निकलते ही एक टैक्सी पर सवार हुए और निकल पड़े शनि महाराज के यहां हाजिरी लगाने। सवा घंटे के सफर के बाद यानि लगभग साढे आठ बजे हम शनि महाराज का भी दर्शन कर खाली हो गए। अब मन में जो शुकून था, उसका अंदाज आप सहज ही लगा सकते हैं। कहां मुझे लग रहा था कि दोनों जगह दर्शन कर पाऊंगा या नहीं, कहां सुबह साढे आठ बजे दर्शन कर हम खाली हो चुके थे। यहीं चाय नाश्ता करने के बाद हम आराम से शिरडी वापस आए और हमने सोचा जब समय है तो क्यों ना साईं बाबा के प्रसादालय में भोजन कर लिया जाए। हम यहां बने नए प्रसादालय पहुंचे, हजारों लोगों की भीड़, लेकिन क्या इंतजाम है, किसी को इंतजार करने की जरूरत नहीं। बमुश्किल यहां 45 मिनट लगे होंगे, हम कूपन लेकर प्रसाद ग्रहण कर चुके थे।

वैसे इस बार कुछ चीजें आंखो में खटकीं भी। बाबा फक्कड़ी स्वभाव के थे, उन्होंने कभी संचय नहीं किया, दिन में भोजन ग्रहण किया तो रात के इंतजाम में नहीं लगे। अब फकीर बाबा के आजू बाजू इतना सोना चांदी जड़ दिया गया है कि वो आंखो में खटकता है। बाबा के बारे में जो कुछ पढ़ा जाता है, वहां का माहौल उससे बिल्कुल अलग होता जा रहा है। कई बार से बाबा के चरण को छूता आ रहा हूं, संगमरमर का वो चरण आज भी आंखों में बसा हुआ है। जब भी बाबा के चरणों को याद करता हूं तो वही संगमरमर का चरण और उस पर पीले रंग का चंदन दो फूल याद आता है। इस बार वहां पहुंचा तो देखा अब पहले वाले चरण को भी बदल दिया गया है, यहां अब सोने के चरण मौजूद हैं, जो इतनी दूर है कि उस पर आप हाथ नहीं लगा सकते। खैर ये तो साईं संस्थान का विषय है, लेकिन मेरा मानना है कि बाबा को साधारण ही रहने दिया जाना चाहिए। इससे लोगों को एक सबक भी मिलता है।

मुझे एक बात बहुत अच्छी लगी। आप भी सुनिए। प्रसादालय में भोजन ग्रहण करने पहुंचा तो काउंटर पर लिखा था, बड़ों का कूपन 40 रुपये का और बच्चों का 20 रुपये। मैने पैसे आगे बढ़ाया तो काउंटर पर पैसे लेने से मना कर दिया। बिना पैसे के कूपन, मुझे बार- बार लग रहा था कि जब काउंटर पर लिखा हुआ है तो आखिर पैसे क्यों नहीं लिए। मैने वहां एक स्टाफ से पूछ ही लिया कि मुझसे पैसे नहीं लिए, तो उसने बताया कि आज का प्रसाद किसी सज्जन की ओर से है। मैने जानना चाहा कि आखिर वो कौन साहब हैं ? पता चला कि उसे भी नाम नहीं पता था, यहां तक की उन सज्जन ने अपना नाम जाहिर करने से मना किया था। आप के साथ भी ऐसा होता होगा कि इलाके में कोई छोटा मोटा धार्मिक आयोजन होता है तो जो कार्ड आपके पास आते हैं, उसमें दो सौ लोगों के नाम दर्ज होते हैं। ये भी लिखा होता है कि पंजीरी का प्रसाद राम प्रसाद की ओर से, चरणामृत का प्रसाद घनश्याम की ओर से, केले का प्रसाद राज कुमार की ओर से, सेब का प्रसाद, जुगुल किशोर और धनिया की पंजीरी करुणा माता की ओर से। आखिर कार्ड पर ये लिखने का क्या मकसद है यही ना कि लोग जान लें की जो प्रसाद वो खा रहे हैं वो भगवान का नहीं घनश्याम का है।

चलते - चलते

मैं एक बार फिर वही बात दुहराना चाहता हूं कि मैने तो वहां कान पकड़ कर तय कर लिया कि अब वीआईपी दर्शन की कभी कोशिश नहीं करुंगा, चाहता हूं कि आप भी एक बार ऐसा करके देखिए। आप खुद महसूस करेंगे कि वीआईपी दर्शन से कहीं ज्यादा शुकून सच्चे श्रद्धालु बनकर दर्शन करने में हैं। वैसे भी अब तो सौ रुपये फीस है, फीस दीजिए वीआईपी बन  जाइये, लेकिन भाइयों बाबा को ही वीआईपी  रहने दीजिए। जय साईं राम !








भव्य प्रसादालय















भक्तों का इंतजार 












( मेरे दूसरे ब्लाग tv स्टेशनhttp://tvstationlive.blogspot.in ) पर भी एक नजर जरूर डालें।  मैने कोशिश की है अपने अंदर झांकने की, यानि ऐसी गंभीर घटनाओं के बाद मीडिया का क्या रोल होना चाहिए, क्या मीडिया को महज भीड़ का हिस्सा बना रहना चाहिए। पढिए. गैंगरेप : मीडिया जिम्मेदार कब होगी ! )

Sunday 23 December 2012

सचिन : बहुत देर कर दी, हुजूर जाते जाते ...


सचिन रमेश तेंदुलकर महान क्रिकेटर हैं, इस बात से किसी को एतराज नहीं हो सकता। देश उन्हें क्रिकेट का भगवान कहता है। मैं व्यक्तिगत रुप से ये मानता हूं कि अगर क्रिकेट में बैंटिंग को लेकर किताब लिखी जाएगी तो ये किताब सचिन से शुरू होगी और सचिन से ही समाप्त होगी। सचिन के योगदान को देशवासी कभी नहीं भूल सकते। इन सबके बाद भी आज क्रिकेट प्रेमी सचिन के रुख से खफा थे, बढिया प्रदर्शन ना कर पाने के बाद भी वो टीम से बेवजह चिपके रहे। होना तो ये चाहिए था विश्वकप जीतने के बाद ही सचिन सन्यास का ऐलान कर देते, विश्वकप में सचिन ने बेहतर प्रदर्शन भी किया था, इसलिए अच्छी तरह से उनकी टीम से बिदाई हो जाती, पर सचिन ने ऐसा नहीं किया। अब दो साल से सचिन की मैदान में छीछालेदर हो रही है, उनके आउट होने के तरीके पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। कमेंट्रेटर उनकी बल्लेबाजी की तकनीक पर ठहाके लगा रहे हैं, यहां तक की सचिन के सन्यास को लेकर चुटकुले बनने लगे। क्रिकेट टीम से उनके चिपके होने को फेवीकाल का जोड़ बताया जाने लगा। पता नहीं ये सब कैसे सुनते रहे सचिन ! मैं तो इस मत का हूं कि...

अल्लाह ये तमन्ना है जब जान से जाऊं,
जिस शान से आया हूं उस शान से जाऊं।

मेरी समझ में नहीं आया कि ये बात सचिन को समझने में इतनी देर क्यों लगी ? मैं देख रहा था कि मैच की कमेंट्री के दौरान सचिन पर वो लोग भी हंस रहे थे, जिन्होंने अपने क्रिकेटिंग कैरियर मे जितने रन बनाए होंगे, सचिन ने उतने मैच खेले हैं। वैसे सचिन ने सन्यास का फैसला लेने में देऱ किया है, ये बात तो मैं भी कहता हूं। सचिन का पिछले दो साल का प्रदर्शन ना सिर्फ निराशाजनक रहा, बल्कि कई बार वो तेज गेंदबाजों को खेलने मे असहज भी दिखाई दिए। सौंवा शतक बनाने में उनका पसीना निकल गया। आखिर में एक कमजोर बांग्लादेश की टीम के साथ हुए मैच में उन्होंने किसी तरह शतक बनाकर  अपना सौंवा शतक पूरा किया। सच कहूं तो लोग सौंवे शतक की बात सुनते सुनते इतना पक चुके थे, किसी ने इसे उतनी गंभीरता से लिया भी नहीं।

चलिए अब अंदर की बात कर लेते हैं। सच ये है कि सचिन ने सन्यास का ऐलान खुशी से नहीं मजबूरी में किया है। दरअसल पाकिस्तान क्रिकेट टीम के साथ होने वाले एक दिवसीय मैच के लिए आज टीम का चयन होना था। अब तक तो होता ये आया है कि चयन समिति का कोई सीनियर मेंबर सचिन को टीम के चयन के पहले पूछा करता था कि वो मैच के लिए उपलब्ध हैं या नहीं। सचिन जब हां कहते थे, तो उनका चयन टीम में कर लिया जाता था। इस बार सचिन को चयन समिति की ओर से कोई फोन नहीं गया। बताते हैं कि खुद सचिन ने दो दिन पहले चयन समिति को फोन करके बताया कि पाकिस्तान के खिलाफ होने वाले मैच के लिए वो उपलब्ध हैं। लेकिन चयन समिति की ओर से उन्हें कोई सकारात्मक जवाब नहीं दिया गया। इससे सचिन को भी संदेह हो गया कि शायद उन्हें इस बार टीम में जगह ना मिले।

पाकिस्तान के साथ होने वाली सीरीज के लिए आज यानि रविवार को चयन समिति की बैठक शुरू होने से पहले सचिन ने समिति को बताया कि वो एक दिवसीय मैंचों से सन्यास ले रहे हैं। सचिन को लगा कि शायद उन्हें मनाया जाए और टीम में आखिरी समय में शामिल भी किया जाए। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, बल्कि सचिन से बातचीत करके मीडिया को जानकारी दे दी गई कि सचिन ने सन्यास का ऐलान कर दिया है। हालाकि सचिन का जितना बड़ा कद है, मुझे लगता है कि उनकी मानसिकता और सोच उतनी ही छोटी होती जा रही है। अब देखिए ना पहले उन्होंने टी 20 से सन्यास लिया, अब वन डे से सन्यास का ऐलान किया है, मतलब उन्हें लगता है कि टेस्ट मैच में अभी वो बेहतर प्रदर्शन कर सकते हैं। जबकि इंगलैंड के साथ हुए टेस्ट मैच में सचिन बुरी तरह फ्लाप रहे, फिर भी अभी टेस्ट मैच की लालच बनी हुई है।

आपको एक वाकया बताऊं, आफिस में हमारी एक सहयोगी सचिन की बहुत बड़ी प्रशंसक हैं। सचिन के बारे में कोई भी प्रतिकूल टिप्पणी उन्हें सहन नहीं होता। इंग्लैंड के साथ टेस्ट सीरीज में जब सचिन को टीम में लिया गया तो मैने यूं ही कहा कि अब टीम का बंटाधार हो गया, हम सीरिज हार जाएंगे। वो नाराज हो गईं, कहने लगी आप ये कैसे कह सकते हैं। खैर हमारे बीच शर्त लग गई, उनका कहना था कि चार टेस्ट मैच यानि आठ पारी में सचिन कम से कम दो शतक जरूर लगाएगें। मैने कहाकि आठ पारी में कुल मिलाकर सचिन के दो सौ रन पूरे नहीं होंगे। इस पर हमारी शर्त लग गई। आप जानते हैं कि शर्त मैने ही जीती है क्योंकि सचिन के सभी पारियों में मिलाकर दो सौ रन पूरे नहीं हुए।

वैसे ये तो मैं  भी मानता हूं कि सचिन का रिकार्ड अद्भुत है, उन्होंने अब तक 463 वन डे खेले हैं और लगभग 18,426 रन बनाए हैं। बल्लेबाज होने के बाद भी उन्होने 149 विकेट भी लिए हैं। सबसे ज्यादा मैच खेलने का उनका अपना रिकार्ड है। उन्होंने 1989 में ही अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट की शुरुआत की और आज तक खेलते रहे। ऐसे महान खिलाड़ी से उम्मीद नहीं थी कि उनकी इस तरह बिदाई होगी। सन्यास का ऐलान करने का सचिन के पास दो मौका था, पहला उन्हें तब करना चाहिए था जब टीम ने विश्वकप जीता था, या फिर उन्हें उस दिन कर देना चाहिए था कि जब उन्होने सौंवा शतक बनाया था। लेकिन सौवें शतक के बाद उनकी लालच बढ़ गई, उन्हें लगा कि अभी देश उन्हें और झेल सकता है।

अच्छा लगता है कि जब क्रिकेटर मैदान में और टीम रहते हुए ऐलान कर देते हैं कि अब बहुत हो चुका, अब वो सन्यास लेगें। सचिन जैसे महान खिलाड़ी से भी ऐसी ही उम्मीद की जा रही थी। लेकिन अंदर की खबर तो ये भी है कि सचिन को दो टूक समझाया गया कि 2015 में होने वाले विश्वकप में आपके लिए कोई जगह नहीं बनती है। ऐसे में अब समय आ गया है कि विश्वकप के मददेनजर टीम का चयन किया जाए, जिससे टीम के खिलाड़ी को तैयारी के लिए पर्याप्त समय मिल सके। वैसे भी आपको पता होगा कि पूर्व कप्तान सुनील गवास्कर का मानना है कि आपको ऐसे समय में संन्यास ले लेना चाहिए, जब लोग आप से पूछें कि अरे ये क्या..आपने सन्यास क्यों ले लिया? ऐसा मौका नहीं देना चाहिए कि लोग खिलाड़ी से सवाल पूछने लगें कि भइया संन्यास कब ले रहे हो। सचिन की हालत ये हो गई थी कि रोजाना उनसे यही सवाल पूछा जा रहा था कि आखिर सन्यास क्यों नहीं ले रहे हैं ?

वो खिलाड़ी महान होता है जो फैसला लेने में साफ रहता है। याद करें पाकिस्तान के पूर्व कप्तान इमरान खान ने 1992 में वर्ल्ड कप शुरू होने के पहले कह दिया कि ये मेरा आखिरी वर्ल्डकप है। उन्हें उस समय पता भी नहीं था कि पाकिस्तान की टीम फाइनल में पहुंचेगी, जब पाकिस्तान फाइनल में पहुंचा तो एक दिन पहले इमरान ने ऐलान किया कि ये उनका आखिरी वनडे है। हम सचिन से भी ऐसी ही उम्मीद कर रहे थे। हम सबको लग रहा था कि अगर बीसीसीआई, चयन समिति, कप्तान आपको रिस्पेक्ट दे रहे हैं तो उसका सम्मान कीजिए और अपने से सन्यास का ऐलान कर दीजिए। लेकिन सचिन को लगा कि वो वाकई अब क्रिकेट के भगवान है, उनको आंख दिखाने की किसी की हैसियत नहीं है। ये सही है कि सचिन को आंख दिखाने की हैसियत किसी भी क्रिकेटर की नहीं है, लेकिन जब देश की टीम चुनी जाएगी तो वहां व्यक्ति का महत्व नहीं रह जाता। यही बात नहीं समझ रहे थे सचिन।

सचिन को सिर्फ एक बात समझाना है, भाई सचिन यहां उगते सूरज को सलाम करने की परंपरा है।  देखिए जब तक आप बढिया खेल रहे थे, आपको लोगों ने हाथोहाथ लिया, देश भर से आवाज उठी कि आपको भारत रत्न दिया जाए। लेकिन आप विश्वास कीजिए आपका खराब प्रदर्शन और उसके बाद भी आपका टीम में बने रहना किसी भी क्रिकेट प्रेमी को अच्छा नहीं लग रहा था, वो तो अच्छा था कि आपको भारत रत्न अभी मिला नहीं है, वरना अब तक भारत रत्न वापस लेने की मांग उठने लगती। वैसे भी सचिन आपको पता है ना कई मैच ऐसे रहे हैं, जिसमें टीम आपके बिना उतरी है और कामयाब भी रही है। ऐसे में आपको सोचना चाहिए था कि उभरते हुए खिलाड़ी को कैसे मौका दिया जाए, लेकिन आपने कभी दूसरों के लिए रास्ता खोलने की कोशिश नहीं की।

बहरहाल सचिन, अगर आप को लगता है कि अगला वर्ल्ड कप भी भारत के हाथ में रहे तो अभी से भारत के 'भविष्य की टीम' की रूपरेखा तैयार करनी होगी। आप को पता है कि गंभीर ओपनर बैट्समैन हैं, पर आपकी वजह से उन्हें नंबर तीन पर खेलना पड़ रहा था। इसी तरह अन्य खिलाड़ियों की भी बैटिंग लाइन पटरी पर नहीं रह पाती है। आपकी वजह से कई बल्लेबाज बाहर बैठने को मजबूर थे। इसलिए देर से ही सही, लेकिन आपके टीम से हट जाने का फैसला सराहनीय है। अच्छा मौका है कि अब आप टीम इंडिया के खिलाड़ियों को आशीर्वाद दें और देश के साथ आप भी नए सचिन की तलाश में जुटें।

Monday 17 December 2012

मोदी : चमत्कार हुआ तभी हैट्रिक !


अगले तीन दिनों तक टीवी न्यूज चैनलों पर गुजरात चुनाव का रंग दिखेगा, मेरे ख्याल से इसके अलावा कोई और खबर चैनल पर अपनी जगह नहीं बना पाएगी। अखबार भी गुजरात चुनाव और नरेन्द्र मोदी से पटे रहेंगे। सच कहूं तो मीडिया ने जिस ऊंचाई पर गुजरात चुनाव को पहुंचा दिया है, उससे राजनीति में थोड़ी सी भी रुचि और दखल रखने वालों की जुबान पर सिर्फ एक ही सवाल है क्या नरेन्द्र मोदी लगातार तीसरी बार चुनाव जीत कर सरकार बना पाएंगे ? क्या कांग्रेस गुजरात में वापसी करेगी ? क्या गुजरात के दिग्गज नेता केशुभाई पटेल अपनी मौजूदगी दर्ज कराने में कामयाब होंगे ? तीनों सवाल महत्वपूर्ण है और इसका जवाब वाकई आसान नहीं है। लगभग 23 दिन तक गुजरात के विभिन्न जिलों में लोगों की नब्ज टटोलने के बाद मैं जरूर एक निष्कर्ष पर पहुंचा हूं और वो ये कि चुनाव के नतीजे ऐसे नहीं आने वाले है, जिससे नरेन्द्र मोदी की आसानी से ताजपोशी हो सके। मसलन मुझे नहीं लगता है कि 20 दिसंबर को गुजरात में मोदी दीपावली मना पाएंगे।

मैं दिल्ली में था तो लग रहा था कि अरे गुजरात में कोई मोदी का कोई मुकाबला ही नहीं है। यहां मीडिया ने भी मोदी को सातवें आसमान पर चढ़ा रखा है। दिल्ली की मीडिया का कहना है कि ये चुनाव गुजरात का नहीं, बल्कि ये चुनाव दिल्ली की कुर्सी का असली वारिस तय करेगा। दिल्ली की मीडिया ने अपनी आंखों पर ऐसा चश्मा चढ़ा रखा है कि उसे गुजरात का असली रंग दिखाई नहीं दे रहा है। चुनाव के नतीजे मोदी के पक्ष में होंगे या नहीं, इसका फैसला तो 20 दिसंबर को होगा, लेकिन मैं कहता हूं कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी तो ये चुनाव पहले ही हार चुके हैं। यही वजह है कि मोदी को ना अपने किए गए विकास कार्यों पर भरोसा है, ना अपने विधायकों पर भरोसा रह गया है।

मैं कहता हूं कि चुनाव के नतीजों में विधायकों की संख्या के आधार पर मोदी भले जीत जाएं, पर मोदी भाई जिस नैतिकता और ईमानदारी की बात करते रहे हैं, उस पर वो खरे नहीं उतरे। चुनाव के पहले दावा किया गया था कि दागी, भ्रष्ट, बेईमान विधायक और मंत्रियों को पार्टी का टिकट नहीं दिया जाएगा। नरेन्द्र भाई बताइये ना आप किस बेईमान मंत्री का टिकट काटने का साहस आप जुटा पाए ? किस दागी विधायक को आपने टिकट नहीं दिया ? कई जगह तो ऐसे भी आरोप लग रहे हैं कि पार्टी के वफादार कार्यकर्ता को टिकट ना देकर टिकट बेच दिए गए। जिन चेहरों को लेकर नरेन्द्र भाई चुनाव मैदान में हैं, उसे देखकर तो यही लगता है कि मोदी को चुनाव हारने का डर सता रहा था, लिहाजा उन्हें समझौता करना पड़ा। दागी, भ्रष्ट और बेईमानों के चुनाव लड़ने की वजह से ही मोदी इस बार पूरी तरह बैकफुट पर हैं, वो अपनी चुनाव जनसभाओं में भी बार-बार एक बात दुहराते हैं कि गुजरात की जनता नरेद्र मोदी को देखकर वोट करे।

मोदी की अपील का मतलब आपको समझाना जरूरी है। चुनाव के वक्त मोदी किसी सवाल का जवाब नहीं देना चाहते। वो इन सवालों से बचना चाहते हैं कि भ्रष्ट मंत्रियों को दोबारा उम्मीदवार क्यों बनाया गया, वो इस बात से भी बचना चाहते हैं कि दागी नेताओं को उम्मीदवार क्यों बनाया गया ?  इस समय वो इस सवाल से भी पीछा छुटाना चाहते हैं कि वफादार कार्यकर्ताओं को टिकट ना देकर पैसे वालों को टिकट कैसे दे दिए गए ?  ऐसे ही सवालों से बचने के लिए मोदी कहते हैं कि जनता उम्मीदवार को बिल्कुल ना देखे, वो नरेन्द्र मोदी को देखे और पार्टी के चुनाव निशान कमल का फूल देखे और वोट करे। अब मुझे तो नहीं लगता कि गुजरात की जनता मोदी और फूल देखकर वोट कर देगी। आज गुजरात में हालत है ये है कि मोदी सरकार के मंत्रियों का चुनाव जीतना मुश्किल हो गया है। वैसे तो मोदी की जनसभाओं में काफी भीड़ु हुआ करती है, लेकिन इस बार कई मौकों पर मोदी लोगों के ना जुटने से खासा नाराज हुएउन्होंने जाते समय अपने उम्मीदवार को लताड़ा और कहा कि अगर भीड़ नहीं जुटा सकते तो टिकट लेने क्यों आ गए ?

मुझे पता है कि आप जानना चाहते हैं कि मैं मोदी को कितनी सीट दे रहा हूं, पहले इस पर चर्चा करूंपर थोड़ा इंतजार कीजिए, इस पर भी बिल्कुल चर्चा करूंगा, पर थोड़ी बात बीजेपी की चुनावी राजनीति पर हो जाए। वैसे तो सही यही है कि गुजरात में बीजेपी का मतलब सिर्फ नरेन्द्र मोदी हैं, वहां पार्टी का कोई और नेता कितनी ही सभा कर ले, किसी को दूसरे नेताओं में कोई इंट्रेस्ट नहीं है। लेकिन मोदी का हर जगह पहुंचना संभव नहीं हो पा रहा था, लिहाजा उन्होंने आधुनिक तकनीक का सहारा लेते हुए थ्रीडी के जरिए सभाएं करनी शुरू कीं, लेकिन उनके इस हाई प्रोफाइल प्रचार पर कांग्रेस हमला बोला तो मोदी बैकफुट पर आ गए, वैसे भी थ्रीडी सभाएं कोई असरदार साबित नहीं हो रही थीं।

अच्छा एक बात और...। 2007  के चुनाव में सोनिया गांधी ने नरेन्द्र मोदी के लिए जो काम किया था, वही काम इस बार क्रिकेटर बीजेपी नेता नवजोत सिंह सिद्धू ने केशुभाई पटेल के लिए किया। मोदी का नाम लिए बगैर सोनिया ने उन्हें "मौत का सौदागर" बताया था, बस इसी एक शब्द को भुना ले गए नरेन्द्र मोदी और उन्होंने सोनिया गांधी और कांग्रेस पर ऐसा हमला बोला कि गुजरात में कांग्रेस हाशिए पर चली गई। इस बार केशुभाई पटेल को बीजेपी नेता नवजोत सिद्धू ने "देशद्रोही" कहा तो गुजराती पटेल बिल्कुल भड़क गए। केशुभाई जिन्हें गुजराती "बप्पा" यानि बड़ा मानते हैं, उन्होंने सार्वजनिक मंच से कहा कि हां अगर मैं देशद्रोही हूं तो "मुझे पत्थर मारो" । केशुभाई के इस हमले पूरी बीजेपी हिल गई। सच तो ये है कि केशुभाई की गुजरात परिवर्तन पार्टी जो महज तीन चार सीट जीत सकती थी, अब वो आठ नौ तक पहुंच जाए तो किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए।

कुल मिलाकर मैं कह सकता हूं कि देश के बाकी हिस्से में लोग भले मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की तीसरी जीत को लेकर आशान्वित हों, पर खुद मोदी पूरी तरह कत्तई आश्वस्त नहीं है। बहरहाल मेरा स्पष्ट मत है कि कोई चमत्कार ही मोदी के विधायकों की संख्या तीन अंकों में पहुंचा सकता है, वरना इस बार मोदी 85 से 95  यानि बहुमत से एक कम ही सीट जीतने की स्थिति में हैं। मोदी के खिलाफ नाराजगी की हालत ये है कि अगर बहुमत से पांच छह सीटें मोदी की कम रहीं तो उनके लिए ये नंबर जुटाना बहुत मुश्किल होगा। अच्छा मै मोदी को जो 95 सीटें बता रहा हूं इसलिए नहीं कि उन्होने बहुत अच्छा काम किया है, जिसकी वजह से उन्हें ये सीटें मिलेंगी, बल्कि कांग्रेस के दिग्गज नेता अहमद पटेल ने कांग्रेस को इतना नुकसान पहुंचा दिया है, वरना कांग्रेस की हालत यहां और बेहतर हो सकती थी।

मेरा मानना है कि इस चुनाव के बाद कम से कम कांग्रेस नेता सोनिया गांधी को अपने राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल की छुट्टी कर देनी चाहिए। मेरा मानना है कि मोदी को गुजरात चुनाव में पटखनी देने के लिए कांग्रेस को ज्यादा मेहनत नहीं करनी थी, सिर्फ दो काम करने थे, पहला शंकर सिंह बाघेला को प्रस्तावित नेता घोषित कर देते और चुनाव तक पार्टी के दूसरे नेता अहमद पटेल को गुजरात जाने पर रोक लगा देते। इतना करके कांग्रेस यहां कम से कम 98 सीटें यानि बहुमत हासिल करने की स्थिति में पहुंच जाती।

दरअसल कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को सच में गलत सलाह दी जा रही है, जिसकी वजह से पार्टी को खासा नुकसान हो रहा है। गुजरात में कांग्रेस नेताओं में अहम के टकराव की वजह से पार्टी की हालत पतली है। शंकर सिंह बाघेला जिस तरह से गुजरात में पार्टी को मजबूत करने में लगे थे, अगर उन्हें केंद्र सपोर्ट मिलता तो मैं विश्वास के साथ कह सकता हूं कि गुजरात की कमान कांग्रेस के हाथ में होती। लेकिन पार्टी के दूसरे नेता अहमद पटेल को लगा कि अगर ऐसा हुआ तो उनकी अहमियत घट सकती है, लिहाजा चुनाव के ठीक पहले तमाम ऐसे काम हुए जिससे पार्टी को बहुत नुकसान हुआ। कांग्रेस में गलत लोगों को टिकट दिए गए हैं, वो भी दो चार नहीं बल्कि बीसियों ऐसे लोग टिकट पाने में कामयाब हो गए, जिनकी इलाके में दो पैसे की पूछ नहीं हैं। ऐसे में पार्टी के सीनियर नेता घर बैठे हुए हैं।

सच्चाई  तो ये है कि गुजरात चुनाव  के पहले जिस तरह से सोनिया गाधी और राहुल गांधी को सक्रिय होकर आक्रामक तेवर दिखाना चाहिए था, उसमें कहीं ना कहीं कमी रही। लगता है नेतृत्व को समझाया गया था कि गुजरात में पार्टी कामयाब नहीं हो सकती, इसीलिए सोनिया और राहुल को दूर रखा गया। लेकिन जब बीजेपी नेताओं ने शोर मचाना शुरू किया कि कांग्रेस के बड़े नेता चुनाव मैदान छोड़कर गायब हो गए, तब जाकर सोनिया और राहुल की सभाएं लगाईँ गईं। बहरहाल चुनाव के आखिरी हफ्ते में कांग्रेस ने गुजरात में तेजी से वापसी की, सच कहूं कि यही तेवर कांग्रेस ने कुछ पहले दिखाए होते तो कांग्रेस आज सहज स्थिति में होती। वैसे भी जब पार्टी नेता अहमद पटेल ने देखा की कांग्रेस की स्थिति बेहतर हो रही है तो श्रेय लेने के लिए उन्होंने खुद भी सभाएं करनी शुरू कर दीं। वैसे उनके इलाके में भी  टिकट बंटवारे को लेकर लोगों मे खासी नाराजगी है।

जहां तक कांग्रेस की सीटों का सवाल है मैं तो उन्हें 80 +  रखूंगा। फिर दुहरा रहा हूं एक बात कि अगर कांग्रेस ने यहां शुरू से मेहनत की होती, मेहनत ना भी सही लेकिन कांग्रेस नेता शंकर सिंह बाघेला को ताकत दी गई होती तो यहां पार्टी की स्थिति कुछ और ही होती। कम लोगों को ही मालूम होगा कि यहां कांग्रेस नेता मोहन प्रकाश कई महीने से डेरा डाले हुए थे, उन्होंने भी जमीन तैयार करने में काफी मशक्कत की, लेकिन उनकी भी सीमाएं थी, बेचारे अहमद पटेल के आगे वो भी असहाय हो गए। यहां दो एक सीटें एनसीपी और एक सीट जेडीयू के खाते में भी जा सकती है। चलिए  जी बातें हो गई, अब इंतजार करते हैं 20 तारीख का, जब सभी की किस्मत का फैसला हो जाएगा। वैसे दुहरा दूं चमत्कार ही मोदी को इस बार मुख्यमंत्री बनाएगा।

 

Monday 10 December 2012

शादी की सालगिरह : जो कहूंगा सच कहूंगा


खुशी का मौका हो और आप वहां मौंजूद ना हों, मुझे लगता है आप सबको इसका अहसास होगा। कल यानि नौ दिसंबर को मेरे भांजे की शादी थी, बढिया रही। लेकिन मैं वहां शामिल नहीं हो पाया, अब कल 11 दिसंबर को शादी का रिशेप्सन है, लेकिन मैं वहां नहीं पहुंच पा रहा हूं। अच्छा बात सिर्फ इतनी सी नहीं है, बल्कि 18 साल पहले कल के ही दिन यानि 11 दिसंबर को मैं भी विवाह के सामाजिक बंधन में बंधा था, तब से कभी ऐसा नहीं हुआ कि 11 दिसंबर को हम साथ ना रहे हों। अच्छा शादी की सालगिरह पर हमेशा ही घर पर मैडम के साथ रहा हूं तो मुझे कभी आभास ही नहीं हुआ कि इस दिन अलग अलग रहना पड़े तो आप कैसे रहते हैं। ईमानदारी से बताऊं, बागवान पिक्चर के कुछ दृश्य सामने से गुजर रहे हैं। एक बात और मैडम की शादी 11 दिसंबर को हुई, अगले ही दिन यानि 12 दिसंबर को उनका जन्मदिन है। हम बहुत पहले से बात कर रहे थे कि इस बार खास जन्मदिन है, जो फिर नहीं आने वाला है, मसलन 12-12-12, अब क्या कहूं। खैर गुजरात चुनाव का काम अब अंतिम चरण में है, हम वापस दिल्ली पहुंच कर खूब मस्ती करने वाले हैं। आपको  भी ज्यादा बोर नहीं करना चाहता, आप जरा इस लेख पर दोबारा गौर कीजिए, सीधी सच्ची बात।   

मौका खुशी का है, सोच रहा हूं कि आज अपने ब्लाग परिवार से खुल कर बातें करूं। आमतौर पर हमेशा दूसरों की बातें करता रहा हूं, लेकिन आज सिर्फ अपनी ही करुंगा। हां ये बता दूं कि जो बातें मैं आज करुंगा उसे आप आधा सच कत्तई न समझे, ये सच में पूरा सच है। मित्रों कल सुबह यानि 11 दिसंबर मेरे लिए क्या परिवार के लिए खास दिन है, क्योंकि 18 साल पहले आज ही के दिन लखनऊ में हम विवाह बंधन में बंध गए थे। 18 साल पीछे मुड़ कर देखता हूं तो लगता ही नहीं कि हम कितना सफर तय कर चुके हैं, सच कहूं तो लगता है कि सब कुछ कल ही की तो बात है।

जीवन में कुछ बातें ऐसी होती हैं, जिसे भुलाना आसान नहीं है। आपको ईमानदारी से बताता हूं कि मेरी शादी जिस दौर में हुई, उस समय किसी भी माता-पिता को अपनी बेटी की शादी किसी पत्रकार से करने में वो खुशी नहीं होती थी, जो खुशी उन्हें सरकारी महकमें के बाबू से करने में मिलती थी। या ये कह लें कि हाईस्कूल के बाद पालिटेक्नीक किया लड़का जो जेई हो जाता था, या फिर हाईस्कूल पास रेलवे में टिकट कलेक्टर बन जाते थे, पत्रकारों के मुकाबले लड़की वाले जेई और टीसी को ज्यादा बेहतर मानते थे। एक वाकया बताता हूं। 1991-92 में लोग मेरी शादी के लिए घर आने लगे थे। एक साहब वाराणसी से मेरी शादी के लिए पापा के पास आए, बातचीत शुरू हुई। उन्होंने पहला ही सवाल पापा से पूछ लिया " जी लड़का करता क्या है ? पापा ने जवाब दिया कि जर्नलिस्ट है। वो बोले ये तो ठीक है, पर करता क्या है ? मतलब आप समझ गए ना। दरअसल उस दौर में पत्रकारिता यानि जर्नलिज्म को कुछ करना माना ही नहीं जाता था। लोगों को ये भी पता नहीं था कि भाई पत्रकार भी नौकरी करते हैं और उन्हें भी हर महीने वेतन मिलता है।

हकीकत ये है कि उस दौरान लोग बहुत ज्यादा घूमने फिरने में भरोसा नहीं रखते थे, लोगो को अपने जिले और आस पास के अलावा कोई खास जानकारी भी नहीं होती थी। हमलोग मिर्जापुर के रहने वाले हैं, यहां दैनिक जागरण और आज अखबार का बोल बाला था। अब साल तो मुझे ठीक ठीक नहीं याद है, पर मुझे लगता है कि ये बात 1992 की होगी। मैं बरेली में दैनिक जागरण अखबार में उप संपादक/ संवाददाता के पद पर तैनात था। मेरी शादी भी लगभग पक्की हो चुकी थी। इसी बीच मुझे अमर उजाला अखबार में बेहतर पैकेज मिला तो मैने वहां ज्वाइन कर लिया। इसका नतीजा ये हुआ कि  मेरी तय हुई शादी सिर्फ इसलिए टूट गई, क्योंकि मैने अखबार बदल लिया। अब पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोगों को अमर उजाला अखबार के बारे में जानकारी ही नहीं थी। उन्हें लगा कि पता नहीं किस अखबार में चला गया,  दरअसल पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोग अमर उजाला अखबार को जानते ही नहीं थे। मुझे और मेरे मित्रों को जब इस बात की जानकारी हुई तो हम बहुत हंसे..।

चलिए अब सीधे 11 दिसंबर 1994 पर आ जाते हैं। उस दौरान मैं अमर उजाला मुरादाबाद में तैनात था। हमारे ससुर जी सिचाई विभाग में इंजीनियर और सासू मां सरकारी स्कूल में टीचर। वैसे पता चला है कि ससुर जी तो मैडम की शादी की बात पहले किसी कस्टम इंस्पेक्टर से चला रहे थे। उनकी कई दौर की बात हो चुकी थी, पर शादी मंहगी पड़ रही थी। मुझे तो शादी के बाद मैडम ने ही बताया कि लड़के वालों ने सभी बारातियों के लिए अंगूठी की मांग रख दी, और इस मांग से वो पीछे नहीं हटे, लिहाजा बात आगे नहीं बढ पाई। फिर घर में सोचा गया कि चलो जर्नलिस्ट को ही टटोल लेते हैं, सस्ते में निपट जाएंगे। अब 18  साल पुरानी बात हो गई, इसलिए कोई इस बात से सहमत नहीं होगा, पर मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि मेरी शादी इसलिए तो बिल्कुल ही नहीं हुई कि लड़का जर्नलिस्ट है। अगर ऐसा होता तो मैं जहां काम कर रहा था, वहां एक बार कोई ना कोई ससुराल से जरूर आता। ये जानने के लिए कि अरे भाई लड़का यहां काम करता भी है या नहीं।  हां एक दिन जब मैं शाम को आफिस पहुंचा तो मुझे गेटमैन ने जरूर बताया कि भाईसाहब आज एक सिचाई विभाग से कोई आदमी आया था, जो आपके बारे में बहुत जानकारी कर रहा था। मैने उसे सब बढिया बढिया बताया है। उसी ने कहाकि शायद आपकी शादी के लिए पूछताछ कर रहा होगा।  वैसे ये बात तो यहीं खत्म हो गई, पर शादी के बाद पता चला कि मुरादाबाद में मेरे ससुर के एक सहायक थे, जिन्होंने मेरे बारे में प्राथमिक जानकारी उन्हें मुहैया कराई थी।

खैर मुझे तो लगता है कि वो यहां सिर्फ ये जानना चाहते होंगे, जिस लड़के से शादी के बारे में बातचीत चल रही है, वो वाकई मुरादाबाद में है भी या नहीं। इतना ही मतलब रहा होगा। मेरा मानना है कि मेरी शादी की दो वजहें थीं, एक तो ये  कि मेरे जीजा जी के छोटे भाई की शादी मेरी मैडम की बड़ी बहन से हुई है। इससे दोनों परिवार एक दूसरे को ठीक ठीक जानते समझते थे। दूसरा ये कि हमारे यहां खेती बारी ठीक ठाक है।  वैसे अच्छा तो ये है कि  इस बात को यहीं खत्म कर दिया जाए, बेवजह मैं मैडम को नाराज नहीं करना चाहता, क्योंकि हमारे विवाह की सालगिरह 11 दिसंबर को और  अगले ही दिन यानि 12 दिसंबर को  मैडम का जन्मदिन भी है, बेहतर ये होगा  कि सबकुछ  ठीक ठाक रहे जिससे दोनों दिन हम साथ साथ कहीं बाहर जाकर डिनर कर सकें।

  अच्छा फिल्मों ने भी पत्रकारों की इमेज कुछ इसी तरह की बना रखी थी। पत्रकार का नाम सुनते ही लोगों के मन में जो तस्वीर बनती थी वो बहुत डरावनी होती थी। यानि एक ऐसे  युवक की जो महीनों बिना नहाए, चेहरे पर उलझी दाढ़ी़, बेतरतीब बाल, एक उद्धत हो चुकी जींस, गंदा कुर्ता, लंबा झोला और कुल्हापुरी चप्पल पहन कर साईकिल से चला जा रहा है, लेकिन उसे जाना कहां ये भी इस नौजवान को पता नहीं हैं। हां मैं ये नहीं कहता की जो तस्वीर बनाई गई थी वो गलत थी, सच्चाई ये थी कि जींस और कुर्ते में हम खुद को कम्फरटेबिल समझते थे। दरअसल कल और आज में फर्क भी बहुत है। उस दौर में पत्रकारों को पड़ी लकड़ी उठाने की आदत होती थी। यानि हम अगर सरकारी अस्पताल पहुंच गए और देख लिया कि कोई मरीज कराह रहा है और उसे देखने वाला कोई नहीं है। तो हम पूरे अस्पताल की चूलें हिला दिया करते थे। एक एक्टिविस्ट की तरह हम काम करते थे, पहले मरीज के बेहतर इलाज के लिए संघर्ष करते थे फिर दफ्तर पहुंच कर रिपोर्ट लिखते थे। अब ऐसा नहीं है, अब तो पत्रकार महज रिपोर्टर बनकर रह गए हैं। वो सिर्फ रिपोर्ट लिखते हैं। आज हालत और सोच इतनी बदतर हो गई है कि दुर्घटना के बाद घायल अस्पताल में पहुंचते हैं, आफिस अपने रिपोर्टर से घायलों का हाल-चाल नहीं पूछता है,  बल्कि बार-बार मरने वालों की संख्या पूछी जाती है। हद तो तब हो जाती है जब रिपोर्टर से कहा जाता है कि मरने वालों का फाइनल फीगर दो, तो रिपोर्टर बेचारा क्या करे, ब्रेकिंग न्यूज के चक्कर मे वहीं अस्पताल में बैठा मरने वालों की संख्या बढ़ने की दुआ करता रहता है।

वैसे आज कल तो पत्रकार भी डिजाइनर ड्रेस पहने नजर  आ जाएंगे। सच बताऊं पत्रकारों का पहनाना चकाचक होने की एक बड़ी वजह महिलाएं भी हैं। मै अखबार का जिक्र नहीं करूंगा, लेकिन बताऊं कि प्रिंट में काम करने के दौरान मेरे आफिस में रिसेप्सनिस्ट के पद पर एक लड़की की तैनाती हो गई। हफ्ते भर के भीतर ही आधे से ज्यादा लोगों ने शेविंग करनी शुरू कर दी। हम पत्रकारों में नए कपड़े खरीदने का चलन ही नहीं था। हम तीन चार दोस्त एक कमरे में रहते थे, कुछ कपडे़ खरीदे जाते थे, और ये कपडे किसी एक के नहीं होते थे। जिसे जो जी में आया पहन कर निकल जाता था। पर इस लड़की ने हमें ब्रीफकेश खरीदने को मजबूर कर दिया, क्योंकि फिर सबके अपने अपने कपड़े हो गए जो ताले वाले ब्रीफकेश में रखे जाने लगे। एक बार अखबार के डायरेक्टर यानि मालिक का आना हुआ, वो लोगों का बदला हुआ ये रूप देखकर हैरान रह गए। उन्होंने मैनेजर से पूछा ये माजरा क्या है, सब के सब अप टू डेट कैसे हो गए। जवाब आया रिसेप्सन पर लड़की की तैनाती इसकी मुख्य वजह है। मैनेजर इस बात से भी परेशान थे के लोग एक बार मैनेजर से हैलो हाय भले ना करें, पर रिसेप्शन पर जरूर करते थे।

बहरहाल हमारे डायरेक्टर खुश हुए और उन्होंने सभी स्टाफ को रेमंड का कोट गिफ्ट किया, लेकिन इसके साथ ये शर्त रखी गई कि लोगों को आफिस कोट टाई में आना होगा। सभी ने कहा बिल्कुल, हम जरूर पहना करेंगे। लेकिन हमारे एक मित्र कौशल किशोर आफिस से देर रात घर के लिए निकले। कोट टाई पहने कौशल को मुहल्ले का कुत्ता पहचान नहीं पाया और काट लिया। बात मालिक तक पहुंची और कोट टाई की अनिवार्यता खत्म हो गई।

समय कैसे बदलता है, आज देखिए, जो जर्नलिस्ट कभी शादी के लिए लोगों की प्राथमिकता में नहीं थे, आज तमाम बडे बडे अफसर लाखों रुपये खर्च कर अपनी बेटी को जर्नलिज्म का कोर्स करा रहे हैं। देश में मास कम्यूनिकेशन हजारों कालेज खुल गए हैं। लगभग सभी विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता की पढाई शुरू हो गई है, मेरिट इतनी हाई है कि अच्छे संस्थान में लोगों को दाखिला नहीं मिल रहा है। अब अखबार का दफ्तर हो या फिर न्यूज चैनल, सभी जगह लड़कियों की अच्छी खासी संख्या है। सच तो ये है कि अब शादी के लिए जर्नलिस्ट भी लोगों की प्राथमिकता में आ गए हैं। बहरहाल पत्रकारों को समाज की स्वीकार्यता मिल गई, मुझे लगता है कि ये पत्रकारों की काम की वजह से हैं। बहरहाल बात बेवजह की लंबी हो गई, मैं तो बस अपनी शादी की सालगिरह को यादगार बनाने के लिए पुरानी बातों को याद करने लगा। एक एक बात याद इसीलिए है, कि मुझे लगता ही नहीं कि हमने लंबा सफर तय किया है, मेरे हिसाब से ये सब कुछ दिन पहले की बात है।


चलते - चलते

आखिर में एक बात और । अपनी शादी पर जनवासे से बारात के रवाना होने के पहले मैने बैंड बाजा के मास्टर को बुलाया और उसे समझाया कि देखो भाई मुझे दो गानों से बहुत परहेज है और आप इस बात का पूरा ध्यान रखें कि रास्ते ये गाना किसी भी कीमत पर बजना नहीं चाहिए। एक गाना है आज मेरे यार की शादी है और दूसरा ये देश है वीर जवानों का, अलबेलों का मस्तानों का, इस देश के यारों.......। मेरे समझाने का असर था, सब कुछ ठीक चल रहा था, लेकिन जैसे ही बारात दरवाजे पर पहुंची और मैं कार से नीचे उतर रहा था, तभी बैंडवालों से रहा नहीं गया और ये गाना बजा ही दिया कि ये देश है वीर जवानों का.......। खैर अब मैं कुछ नहीं कर सकता था ।

Wednesday 5 December 2012

गीर अभ्यारण : शेर ही शेर


गुजरात में चुनावी चौपाल की भागमभाग के बीच एक दिन समय निकाल कर हम सब पहुंच गए जूनागढ़ में गीर के जंगलों में। वैसे तो मैं कई बार जिम कार्बेट, नेशनल दुधवा पार्क गया हूं, लेकिन आज तक मैं शेर के दर्शन नहीं कर पाया था। हां पिछली दफा दुधवा नेशनल पार्क में जरूर एक शेर की पूंछ दिखी थी, क्योंकि वो महज 30 सेकेंड में जंगल में गुम हो गया। लेकिन मेरी वर्षों की हसरत पूरी हुई इस गीर कें जंगल में। इस जंगल में इतने शेर देखे कि अगर मैं ये कहूं कि यहां मैने कुत्तों की तरह शेर देखे, मतलब जिस तरह आपको जहां तहां कुत्तों के झुंड दिखाई दे जाते हैं, उसी तरह गीर फारेस्ट में शेरों के साथ है।

अच्छा शेर को देखने का अपना अलग आनंद है, लेकिन आप अंदाज नही लगा सकते कि हम सब उसके कितने करीब थे। हमारे और शेर के बीच फासला महज तीन चार मीटर का रहा है। एक बार तो मुझे लगा कि शेर ये नहीं शेर तो हम हैं जो जानते हुए कि ये मिनट भर में हम सब की ऐसी तैसी कर सकता है, फिर भी हम डटे हुए थे। आज हम सबको लग रहा था कि शायद ऐसा मौका फिर ना मिले, लिहाजा कैमरे रुक ही नहीं रहे थे।  शेर को भी ना जाने क्या सूझ रहा था, वो भी कैमरे को देखकर तरह तरह के पोज बना रहा था। पहले तो वह जंगल के बीच था, उसे लगा कि हम सबको तस्वीर लेने मे दिक्कत हो रही है, लिहाजा वो पूरे परिवार के साथ खुद ही सड़क के बीचो बीच आया और लेट गया।

जंगल मे घूमने के दौरान यहां के डीएफओ डा. संदीप कुमार हमारे साथ थे। वो जंगल की बारीकियां हमें बता रहे थे। उनके महकमें के ट्रैकर जंगल मे तैनात थे, जो सभी वाकी टाकी से जुड़े हुए हैं। डा कुमार पूछते कि इस वक्त कहां कहां शेर मौजूद है। कई लोकेशन से मैसेज मिल गया, जिससे शेरो को हमने आसानी से देख सके। इन दिनों टेलीविजन और रेडियो पर एक विज्ञापन आ रहा है। जिसमें सदी के महानायक अमिताभ बच्चन पर्यटकों को गुजरात आने का न्यौता दे रहे हैं। वे बताते हैं कि गुजरात के गीर के जंगलों में शेर देखने आइये। जहां राजा और प्रजा सब साथ मिलकर रह रहे हैं। वैसे तो ये महज पर्यटक विभाग का एक विज्ञापन भर है, लेकिन बताते हैं कि अमिताभ भी यहां शेरों को देख काफी खुश थे। अमिताभ ने ट्विटर पर लिखा है कि मुझसे केवल पाँच फुट की दूरी से शेर गुजरे.. अमेजिंग..। नर, मादा, शावक.. मेरी ओर आए, मुझे देखा और आगे बढ़ गए। उन्होंने लिखा है कि जो कुछ मैंने देखा, उस पर मुझे विश्वास ही नहीं हुआ।

वैसे इस जंगल मे कई तरह के अनुभव हुए। मेरे समझ नहीं आ रहा था कि क्या शेर किसी पर रहम कर सकता है? क्या वह किसी को जीवन भी दे सकता है ? क्या उसके सामने आ जाने पर कोई भी अपने स्थान पर यूं ही खड़ा रह सकता है ? उसके पैने नुकीले दांतों और लंबे-लंबे नाखूनों में लगे खून को देखकर भी कोई भयमुक्त हो उसके सामने खड़ा रह सकता है ? क्या शेर शाकाहारी हो सकता है ? ये तमाम ऐसे सवाल हैं, जिनका उत्तर मैं अभी भी नहीं तलाश पाया हूं। अच्छा एक दो जगह नहीं इसी जंगल में कई जगह शेर मिले और सभी के बहुत करीब जाकर हम सबने तस्वीरें लीं। वैसे सच बताऊं मन में तो शैतानी सूझ रही थी कि एक ईंट इसकी ओर दे मारूं, फिर देखूं क्या करता है ? हाहाहहाहा

आपको बता दूं कि दुनिया दुनिया भर मे जहां सरंक्षित वन्य जीवों की संख्या लगातार घट रही है वहीं गुजरात में एशियाई शेरों की संख्या में काफी बढोत्तरी हुई है। गुजरात के इस गीर अभ्यारण और आस पास के इलाकों में शेरों की गिनती का काम पूरा हो चुका है और नतीजे काफी उत्साहजनक आए हैं. पिछले तीस सालों में गीर के शेरों की संख्या दुगनी हो गई है। नई गणना के अनुसार यहां 411 शेर विचरण करते हैं। बताया गया कि 1979 में यहाँ केवल 205 शेर ही बचे थे, लेकिन अब शेरों को बचाने का अभियान अपना असर दिखा रहा है और शेरों की संख्या लगातार बढ रही है।

गीर जंगल के बारे में भी दो चार बातें ना लिखूं तो इस अभ्यारण की कहानी अधूरी रह जाएगी। वन्य जीवों से भरा गिर अभ्यारण्य लगभग 1424 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। इस वन्य अभ्यारण्य में अधिसंख्य मात्रा में पुष्प और जीव-जन्तुओं की प्रजातियां मिलती है। यहां स्तनधारियों की 30 प्रजातियां, सरीसृप वर्ग की 20 प्रजातियां और कीडों- मकोडों तथा पक्षियों की भी बहुत सी प्रजातियां पाई जाती है। दक्षिणी अफ्रीका के अलावा विश्व का यही ऐसा एकलौता स्थान है जहां शेरों को अपने प्राकृतिक आवास में रहते हुए देखा जा सकता है। जंगल के शेर के लिए अंतिम आश्रय के रूप में गिर का जंगल, भारत के महत्वपूर्ण वन्य अभ्यारण्यों में से एक है।

बताते हैं कि गिर के जंगल को सन् 1969 में वन्य जीव अभ्यारण्य बनाया गया और 6 वर्षों बाद इसका 140.4 वर्ग किलोमीटर में विस्तार करके इसे राष्ट्रीय उद्यान घोषित कर दिया गया। यह अभ्यारण्य अब लगभग 258.71 वर्ग किलोमीटर तक फैल चुका है। वन्य जीवों को सरक्षंण प्रदान करने के प्रयास से अब शेरों की संख्या बढकर 411 हो गई है। कुछ ही लोग जानते होंगे कि गिर भारत का एक अच्छा पक्षी अभ्यारण्य भी है। यहां फलगी वाला बाज, कठफोडवा, एरीओल, जंगली मैना और पैराडाइज फलाईकेचर भी देखा जा सकता है। साथ ही यह अधोलिया, वालडेरा, रतनघुना और पीपलिया आदि पक्षियों को भी देखने के लिए उपयुक्त स्थान है। इस जंगल में मगरमच्छों के लिए फॉर्म का विकास किया जा रहा है जो यहां के आकर्षण को ओर भी बढा देगा । देश में सबसे बड़े कद का हिरण, सांभर, चीतल, नीलगाय, चिंकारा और बारहसिंगा भी यहां देखा जा सकता है साथ ही यहां भालू और बड़ी पूंछ वाले लंगूर भी भारी मात्रा में पाए जाते है।


चलते - चलते

मित्रों की सलाह पर हमने एक रात इसी जंगल के रिसार्ट मे गुजारी। बताया गया कि देश में सिर्फ यहां ही नीग्रो की आबादी है। हमने इच्छा जताई कि चलो उनके गांव चलते हैं, थोड़ी देर वहां बिताते हैं, पर सलाह दी गई कि  नहीं इनके गांव  शाम के वक्त जाना ठीक नहीं है। एक मित्र उनके कुछ लोगों को जानता था, उसने उनसे बात की और हमारे रिसार्ट पर ही  सज कई नीग्रो का हंगामा। वो बहुत मस्ती और अलग धुन में डांस करते है, हम सब भी खुद को रोक नहीं पाए। खूब झूमे।


सोच रहा  हूं कि दो तीन और तस्वीरें आपके साथ शेयर करूं......


ये तस्वीर बिल्कुल सामने से चार मीटर की दूरी से ली गई है। आप पहचान ही गए होंगे ये बब्बर शेर है।













अब ये मत कहिएगा कि हमने तस्वीर चोरी से ली है,  एक नहीं चार चार शेरों के आंख में आंख मिलाकर तस्वीर ली गई है। चलिए आप ही तय कीजिए असली शेर कौन ?











देश में बहुत कम ही जगह नीग्रो रहते हैं। जूनागढ़ में गिरी अभयारण्य के करीब ये कबीला रहता है। शाम की मस्ती इन्हीं के साथ...












मूड मस्ती का था हमने भी नहीं रह गया और थाम लिया उनका ढोलक, दो चार थाम मेरे साथ भी..












Wednesday 28 November 2012

नरेन्द्र मोदी : सावधानी हटी, दुर्घटना घटी ...


आपसे वादा था कि गुजरात चुनाव के बारे में आप सबको अपडेट दूंगा, तो चलिए आज गुजरात विधानसभा चुनाव की ही कुछ बातें कर ली जाए। दो दिन पहले ही दिल्ली से अहमदाबाद पहुंचा हूं और इस 48 घंटे में बहुत सारे लोगों से मुलाकात हुई, हर मुद्दे पर बहुत ही गहन विचार किया गया है। आप सबका ब्लड प्रेशर ना बढ़े इसलिए एक बात पहले ही स्पष्ट कर दूं कि दिल्ली में था, तो वहां से भी यही लग रहा था कि मोदी तीसरी बार भी सरकार बनाएंगे, गुजरात पहुंचने के बाद भी ऐसा ही लग रहा है की मोदी की सरकार बन ही जाएगी। अब सवाल उठता है कि अगर मोदी की सरकार बन ही रही है तो फिर चुनाव में इतनी मारा मारी क्यों है ? तो आइये अब भूमिका खत्म, सीधे मुद्दे की बात की जाए।

वैसे तो युद्ध और चुनाव के सामान्य नियम हैं, मसलन जो जीता वही सिकंदर। यहां बहुत ज्यादा साइंस नहीं है कि ऐसा होता तो ऐसा होता, वैसा होता तो फिर ये होता। खैर इन सबके बाद भी मैं चाहता हूं कि आपको यहां की कुछ बारीक जानकारी दूं। ये ऐसी जानकारी है जिससे यहां मोदी की हवा होते हुए भी खुद मोदी साहब की हवा निकली हुई है। गुजरात मे विधानसभा की 41 सीटें ऐसी है, जो मोदी का गणित पूरी तरह से बिगाड़ सकती हैं। यहां पिछले चुनाव में बीजेपी की जीत तो हो गई थी, लेकिन मतों का अंतर काफी कम था। इसमें 18 सीटें कच्छ और सौराष्ट्र के हिस्से में आती हैं। इस बार केशुभाई पटेल ने अलग पार्टी बना ली है, लिहाजा कुछ नुकसान तो यहां बीजेपी को उठाना ही होगा। वैसे भी यहां जातिवाद की राजनीति बहुत चरम पर रहा करती है, इसलिए लोग केशुभाई को कम आंकने को तैयार नहीं है, लेकिन व्यक्तिगत रूप से मैने जो समझा है, मुझे नहीं लगता कि केशभाई की गुजरात परिवर्तन पार्टी इस बार कोई बड़ा करिश्मा कर पाएगी।

हां आपको पता ही है कि मोदी ने पिछले यानि 2007 के विधानसभा चुनाव में 182 में से 117 सीटों पर जीत हासिल कर दूसरी बार अपनी सरकार बनाई थी, जो सत्ता के जादुई आंकड़े 92 से सिर्फ 25 सीटें ज्यादा है, लेकिन, 76 सीटें ऐसी रहीं, जिन पर भाजपा-कांग्रेस के बीच कांटे का मुकाबला रहा और अंतिम राउंड में भाजपा इनमें से 41 सीटों को अपनी झोली में करने में कामयाब हो गई। इन 41 सीटों में भी 4 सीटों पर उसके उम्मीदवार बमुश्किल एक हजार वोट के अंतर से जीत पाए। इसी तरह 9 उम्मीदवार तीन हजार वोट, 11 उम्मीदवार पांच हजार वोट और 16 उम्मीदवार सिर्फ दस हजार वोट ज्यादा लेकर ही जीत का सेहरा अपने सिर पर बांध सके।
मोदी को पिछले चुनाव मे सबसे ज्यादा कामयाबी कच्छ – सौराष्ट्र में मिली थी। गुजरात के इस सबसे बड़े हिस्से में बीजेपी के खाते में 58 में से 43 सीटें गईं। लेकिन 18 सीटों पर तो यहां भी बीजेपी उम्मीदवारों को जीत के लिए बहुत पसीना बहाना पड़ा। हालत ये थी कि यहां की खंभलिया सीट भाजपा का उम्मीदवार महज 798 वोट से ही जीत पाया। बात यहां के दूसरे हिस्से की करें तो राजपीपला विधानसभा क्षेत्र में सिर्फ 631, मांडल में सिर्फ 677, खंभलिया में 798 और कांकरेज में जीत-हार का ये अंतर महज 840 वोटों का रहा। मुझे लगता है कि इस नजरिये से अगर पिछले चुनाव को देखा जाए तो मोदी की हालत उतनी अच्छी नहीं रही है, जितनी देश भर में चर्चा है। इसीलिए तो कहता हूं कि सावधानी हटी, दुर्घटना हुई।

हालाकि विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन के बाद शहरी आबादी की सीटें पहले के मुकाबले काफी बढ़ गई हैं। कहा तो ये जा रहा है कि शहरी क्षेत्र में सीटें बढ़ने का फायदा मोदी को होगा, लेकिन इसे दूसरी तरह से भी देखा जा रहा है। मसलन जो लोग मोदी से नाराज हैं, या जो उनकी सरकार के प्रदर्शन से नाखुश हैं, वो कांग्रेस को वोट करते, लेकिन मैदान में केशूभाई पटेल की गुजरात परिवर्तन पार्टी के उतरने से अब विरोधी वोटों का कांग्रेस और गुजरात परिवर्तन पार्टी में बटवारा हो जाएगा, जिसका फायदा सीधे मोदी को हो सकता है। बदले हालात में अपनी संभावना जानने के लिए बीजेपी ने जो सर्वे कराया, उसमें 48 विधान सभा सीटों पर तो उसकी जीत सौ प्रतिशत बताई गई, लेकिन 32 सीटों पर ये संभावना सिर्फ 30 प्रतिशत, 42 सीटों पर 50 प्रतिशत और 60 सीटों पर 60 प्रतिशत आंकी गई है। हालांकि गुजरात की सत्ता में बने रहने के लिए 92 सीटें ही पर्याप्त हैं. यदि सर्वे पर यकीन किया जाये तो हैट्रिक के लिए मोदी को सिर्फ 44 सीटों पर ही कड़ी मेहनत करने की जरूरत होगी।

वैसे यहां चुनाव प्रचार में भी काफी नयापन दिखाई दे रहा है। आजकल बीजेपी का एक विज्ञापन चर्चा में है। इसमें कबड्डी के खेल के लिए दो टीमें तैयार हैं, और मैदान में हैं। रेफरी दोनों टीमों के कप्तान को बुलाता है तो बीजेपी का कप्तान आगे आ जाता है, लेकिन  कांग्रेस का कप्तान नहीं आता है, यहां खिलाड़ी एक दूसरे की ओर देखते हैं। फिर रेफरी कांग्रेस की ओर से उप कप्तान को बुलाया जाता है तो सभी खिलाड़ियों में मारी मारी हो जाती है और सब आगे बढ़ते हैं। इससे बीजेपी ये साबित करना चाहती है कि कांग्रेस एक ऐसी टीम है, जिसका कोई कप्तान ही नहीं है। लेकिन सवाल ये उठता है कि गुजरात में बीजेपी से ही उसका उप कप्तान पूछ लिया जाए तो मुझे लगता है कि बीजेपी के पास भी उप कप्तान के लिए कोई नाम नहीं है। इसी तरह के कई विज्ञापन यहां लोगों के बीच खास चर्चा में हैं।

वैसे यहां कांग्रेसियों को एक साथ दो चुनाव लड़ने पड़ रहे हैं। एक तो वो विधानसभा का चुनाव लड़ ही रहे हैं, दूसरी अपनी पार्टी के भितरघात से भी उन्हें जूझना पड़ रहा है। माना जा रहा था कि कांग्रेस के दिग्गज नेता शंकर सिंह बाघेला को पार्टी पूरी ताकत देगी और उन्हीं की अगुवाई में ये चुनाव लड़ा जाएगा। लेकिन कांग्रेस ने बाघेला को जितना तवज्जो देना चाहिए था, शायद वो नहीं दिया, लिहाजा खुले तौर पर तो नहीं लेकिन बाघेला अपनी अनदेखी से काफी खफा हैं और चुनाव के ऐन वक्त वो हैं कहां ? किसी को नहीं पता। अच्छा फिर कांग्रेस ने कुछ जल्दबाजी भी की, मसलन चुनाव के दो महीने पहले ही तमाम चुनावी घोषणाएं कर डाली, अब चुनाव के वक्त उनके कमान में कोई तीर ही नहीं है। सही तो ये है कि जब दो महीने कांग्रेस ने चुनावी घोषणाएं करनीं शुरू कीं तो इससे मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी भी परेशान हो गए थे। लेकिन आज कांग्रेस का हाथ खाली है।

सच बताऊं तो इस चुनाव में मुद्दा क्या हो ? ये नरेन्द्र मोदी भी नहीं समझ पा रहे हैं। दावा भले किया जा रहा हो कि चुनाव में विकास मुद्दा होगा, लेकिन यहां सड़क, बिजली, पानी जैसी कोई खास दिक्कत नहीं है। हां कुछ इलाकों में पानी की दिक्कत जरूर है, लेकिन वो इतना बड़ा मुद्दा नही हैं जो इस चुनाव को सीधे प्रभावित करे। अंदर की बात तो ये है कि खुद मोदी गुजरात मे कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की चुनावी सभाओं का इंतजार कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि अगर सोनिया पिछले चुनाव की तरह इस बार भी उनके खिलाफ कुछ तल्ख टिप्पणी करतीं हैं तो उसी को लेकर मोदी मैदान में कूद जाएगें। आपको याद होगा कि पिछले चुनाव में सोनिया गांधी ने नाम भले ना लिया हो, लेकिन मोदी को मौत का सौदागर  बताया था। सोनिया तो एक बार बोल कर गुजरात से दिल्ली पहुंच गईं, लेकिन मोदी ने मौत के सौदागर को ऐसा भुनाया कि यहां कांग्रेस औंधे मुंह जा गिरी। अब इस बार भी उन्हें भरोसा है कि उनके बारे में कुछ ऐसी टिप्पणी आए, जिसे वो मुद्दा बना लें। सच यही है कि गुजरात में विकास की बातें करना बेमानी सी लगती है।

मेरा वोट मेरी सरकार :  मेरे न्यूज चैनल आईबीएन 7 का ये खास कार्यक्रम है। जिसका रोजाना शाम 7.30 पर गुजरात के विभिन्न शहरों से सीधा प्रसारण किया जाता है। इसमें हम खासतौर पर गुजरात के चुनाव की नब्ज टटोलने और नेताओं से जनता सवाल पूछ कर उनका हिसाब मांगती है, यानि नेताओं को देना होता है अपने काम काज का लेखा जोखा। एक बात मैं खास तौर पर देख रहा हूं कि गुजरात का दंगा यानि गोधरा कहीं अब वैसे तो चर्चा में नहीं है। लेकिन इसे मुद्दा बनाने की साजिश की जा रही है। साजिश कौन कर रहा है, क्यों कर रहा है, ये तो वही जानें, लेकिन एक तपका चाहता है कि हिंदु मुस्लिम की बात हो और इस पर प्रमुखता से चर्चा हो। आप सोचें कि अगर चुनाव में हिंदू मुस्लिम की बात आती है तो फायदा किसे होगा ? चौपाल के दौरान कुछ लोग गोधरा पर सवाल भी पूछते हैं ।

बहरहाल अगर आप गुजरात में हैं तो हमारे चौपाल में शामिल हो सकते हैं। चौपाल की तारीख भी दे देता हूं आपको.... 26 नवंबर, अहमदाबाद, 27 नवंबर अमरेली, 28 नवंबर जूनागढ़, 29 नवंबर पोरबंदर, 30 नवंबर जामनगर, एक दिसंबर रोजकोट, तीन दिसंबर भावनगर, 4 दिसंबर बड़ोदरा, 5 दिसंबर भरुच, 6 दिसंबर वालसाड़, 7 दिसंबर नवसारी, 8 दिसंबर सूरत, 10 दिसंबर गोधरा, 11 दिसंबर आणद, 12 दिसंबर मेहसाणा, 13 दिसंबर वनासकांटा और 14 दिसंबर को आखिरी चौपाल भुज से करके दिल्ली वापसी होगी।









Wednesday 21 November 2012

देश अभी शर्मिंदा है, अफजल गुरु जिंदा है !


आज बात तो करने आया था महाराष्ट्र सरकार के उस शर्मनाक फैसले की, जिससे उसने देश के एक बड़े तपके के घावों पर नमक छिड़कने का काम किया। यानि शिवसेना सुप्रीमों बाल ठाकरे का निधन हो जाने के बाद उनका अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान से किए जाने का ऐलान कर। इस पर विस्तार से बात होगी लेकिन पहले बात करते हैं आतंकी अजमल कसाब की, जिसे फांसी देकर केंद्र सरकार ने दुनिया को दिखाया कि आतंकवाद से लड़ने की मजबूत इच्छाशक्ति सरकार मे हैं। वहीं संसद पर हमले के मास्टर माइंड अफजल गुरु के मामले में आज तक फैसला ना होने से राष्ट्रपति भवन और गृह मंत्रालय को जनता कटघरे में खड़ा कर रही है। तीसरी मौत के बारे मे शायद उत्तर प्रदेश के बाहर रहने वाले ना जाने, लेकिन राजनेताओं को उंगली पर नचाने वाला शराबमाफिया पांटी चढ्ढा को उसके ही भाई ने संपत्ति विवाद में गोली से उड़ा दिया।

चार साल पहले पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान से 10 आतंकी समुद्री मार्ग से मुंबई पहुंचे और उन्होंने खून की होली खेलनी शुरू कर दी। इन आतंकियों ने किस तरह मुंबई को हिलाया ये सब आपने टीवी पर देखा है। आपको  पता है कि नौ आतंकियों को हमारे जवानों मे मार गिराया था, जबकि एक आतंकी अजमल कसाब को जिंदा पकड़ने में हमारी फौज कामयाब रही। कसाब का ट्रायल शुरू हुआ, पूछताछ में उसने स्वीकार किया कि वो पाकिस्तानी है और उसने जो पता बताया वहां भी स्थानीय लोगों ने स्वीकार किया कि कसाब इसी गांव का रहने वाला है। इन सबके बावजूद पाकिस्तान सरकार ने साफ इनकार कर दिया कि कसाब पाकिस्तानी है। बहरहाल पड़ोसी मुल्क का होने के बाद भी कसाब के मामले की अदालत में सुनवाई हुई और जिस तरह एक भारतीय को अपना बचाव करने का हक है, वो सारी सहूलियतें कसाब को दी गई। निचली अदालत, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से फांसी की सजा मिलने के बाद आखिर में राष्ट्रपति के यहां कसाब ने दया याचिका पेश किया। इसी 5 नवंबर को राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने उसकी याचिका खारिज कर दी और आज यानि 21 नवंबर को सुबह 7.36 पर उसे फांसी पर लटका दिया गया।

आतंकवादियों के इस हमले में मुंबई में 166 लोगों ने जान गवांई थी। इस आतंकी घटना के बाद से ही हमले में मारे गए लोगों के परिजन लगातार मांग कर रहे थे कि कसाब को फांसी दी जाए, लेकिन सरकार कोई भी फैसला भावनाओं के आधार पर नहीं करना चाहती थी, उसने न्यायिक प्रक्रिया का पालन करते हुए उसे फांसी पर लटकाया। पहले से तय था कि कसाब को फांसी देने के बाद देश में एक बड़ा सवाल उठेगा कि कसाब तो सिर्फ एक मोहरा था, उसे कब फांसी होगी जो ऐसी घटनाओं का मास्टर माइंड है। इशारा साफ है कि संसद पर हमले के जिम्मेदार अफजल गुरू को फांसी कब होगी ? ये सवाल पहले भी उठता रहा है कि आखिर सुप्रीम कोर्ट से भी अफजल गुरु को फांसी की सजा सुनाई जा चुकी है, फिर अफजल कैसे जिंदा है। आपको पता है कि अफजल की दया याचिका भी राष्ट्रपति के पास लंबित है।

कसाब को फांसी के मामले में केंद्र महाराष्ट्र सरकार ने जिस तरह से तालमेल दिखाया, देश में अपनी तरह की ये पहली ही कार्रवाई है। 19 अक्टूबर को गृहमंत्रालय ने कसाब की फाइल राष्ट्रपति के यहां भेजी, राष्ट्रपति ने महज 15 दिन यानि पांच नवंबर को दया याचिका खारिज करते हुए फाइल गृहमंत्रालय को वापस भेज दी, सात नवंबर को गृहमंत्रालय ने इस पर फांसी की मुहर लगा दी और आठ नवंबर को ये फाइल महाराष्ट्र भेजी गई। इस फाइल में 21 नवंबर को फांसी देने की तारीख तय कर दी गई थी। 19 नवंबर को कसाब को मुंबई से पुणे ले जाया गया और आज यानि 21 को फांसी दे दी गई। इस मामले में पूरी तरह गोपनीयता बरतने के लिए इसे आपरेशन X नाम दिया गया। यहां तक की अफसर कसाब को मेहमान के संबोधन से आपस में बात कर रहे थे, जिससे किसी को कानोंकान खबर ना हो कि किस मामले में बात हो रही है।

राष्ट्रपति भवन पर सवाल ! अफजल गुरु की दया याचिका का निस्तारण ना होने से आम जनता  में तो हैरानी है ही, राजनीतिक दल भी लगातार इस मामले में केंद्र सरकार को कटघरे में खड़ा करते रहे हैं। कुछ समय पहले कहा गया राष्ट्रपति भवन में अफजल गुरु के मामले में फैसला लेने से पहले 17 और दया याचिकाओं का निस्तारण किया जाना है। खुलकर तो ये बात नहीं कही गई थी, लेकिन इशारा यही था कि जब अफजल की बारी आएगी तो उसके मामले में भी फैसला लिया जाएगा। इसके बाद लोग निराश थे, क्योंकि सभी को लग रहा था कि जब अफजल गुरु को कई साल पहले  फांसी की सजा सुनाई जा चुकी है और उसे आज तक फांसी नहीं दी जा सकी है तो भला कसाब को कैसे फांसी दी जा सकती है ? लेकिन कसाब की फांसी पर इतनी जल्दी फैसला लिया गया और बिना देरी उसे फांसी पर लटका भी दिया गया, इससे तो साफ हैं कि अगर सरकार की इच्छाशक्ति मजबूत हो तो, फैसला लेने में कोई मुश्किल नहीं है। यही वजह है कि आज कसाब को फांसी दिए जाने के बाद संसद पर आतंकी हमले के मास्टर माइंड अफजल गुरु को फांसी देने की मांग जोर पकड़ रही है। हालाकि देखा जा रहा है कि गुरु को फांसी देने का मामला आसान नहीं है, वजह साफ है, ये मामला सियासी ज्यादा हो गया है।

 कसाब को फांसी के बाद क्या ? मुझे लगता है कि पाकिस्तान और आतंकवादियों में इसकी प्रतिक्रिया स्वाभविक है। पहला तो जो संदेश आ रहा है, उससे तो लगता है कि पाकिस्तान में भारतीय बंदी सरबजीत की रिहाई कुछ दिन लटक सकती है। अगर वो सरबजीत के साथ कुछ ऐसा वैसा भी करें तो मुझे हैरानी नहीं होगी। इसके अलावा हमें आपको पहले से ज्यादा सावधान रहने की भी जरूरत होगी, क्योंकि आतंकवादी भी प्रतिक्रिया में कुछ बड़ी घटनाओं को अंजाम देने की साजिश कर सकते हैं। इसके अलावा मुझे लगता है कि पाकिस्तान की क्रिकेट टीम का भारत दौरा एक बार फिर लटक सकता है। वैसे भी जब दिल में एक दूसरे मुल्क के प्रति नफरत भरी हो तो क्रिकेट तो होना भी नहीं चाहिए। बहरहाल कसाब को फांसी दिए जाने के बाद अगर पड़ोसी मुल्क ने प्रतिक्रिया के तौर पर कुछ भी किया तो निश्चित ही इसका परिणाम गंभीर होने वाला है।

हां-अब बात बाल ठाकरे की :  मेरा महाराष्ट्र की सरकार से एक सवाल है। शिवसेना सुप्रीमों का कोई एक ऐसा काम बताएं जो उल्लेखनीय हो, राष्ट्रहित में हो। फिर ठाकरे किसी पद पर भी नहीं रहे, ऐसे में उनका अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान से करने का ऐलान क्यों किया गया ? क्या महाराष्ट्र की सरकार को अपनी पुलिस पर भरोसा नहीं था ? क्या सरकार डरी हुई थी कि ठाकरे की मौत के बाद मुंबई के हालात को काबू में करना मुश्किल होगा ? मैं बहुत गंभीरता से कहना चाहता हूं कि जिन शिवसैनिकों ने मुंबई की कानून व्यवस्था को लेकर सरकार की नाक में दम कर दिया हो, उसकी अगुवाई करने वाले को आखिर तिरंगे में कैसे लपेटा जा सकता है ? मुंबई आने वाले उत्तर भारतीयों की जो लोग पिटाई का ऐलान करते हो, जो निर्दोष आटो चालकों पर हमला कर उनके पैसे छीन लेते हों। ऐसे लोगों के साथ सरकार की इतनी सहानिभूति आखिर क्यों ?

मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि मराठी मानुस की बात कर उत्तर भारतीयों को मुंबई छोड़कर जाने को कहने का ऐलान कर हिंसा फैलाने वालों को भला राजकीय सम्मान कैसे दिया जा सकता है ? सच्चाई तो ये है कि ठाकरे ना कभी लोकतंत्र के हिस्सा रहे और ना ही उनका लोकतंत्र में कभी भरोसा रहा है। वे खुद कहते थे कि वो शिवशाही पर विश्‍वास करते हैं, लोकशाही पर नहीं। वो एक ऐसे व्‍यक्ति थे जो ऐक्‍शन की बात करते थे। हम कहते हैं कि हमारा देश लोकतांत्रिक है, लेकिन कोई व्‍यक्ति जिसने कभी लोकतंत्र को माना ही नहीं उसके बारे में आप क्‍या कहेंगे। अब किसी के लाखों अनुयायी होने का मतलब यह नहीं कि व्‍यक्ति के शरीर को हम तिरंगे में लपेट दे। उनकी राजनीति ही देश को तोड़ने वाली रही है। मसलन हमारा संविधान कहता है कि हर व्‍यक्ति को देश के किसी भी स्‍थान पर रहने और काम करने का अधिकार है, जबकि ठाकरे हमेशा संविधान की इस धारा के विरोध में रहे। उन्‍होंने मुंबई में बाहरी लोगों का हमेशा विरोध किया। उनकी राजनीति की शुरुआत कम्‍युनिस्‍टों को मुंबई से खदेड़ने से हुई और फिर उन्‍होंने उत्तर भारतीयों का मुंबई में जीना मुहाल कर दिया।

ठाकरे की मौत के बाद महाराष्ट्र सरकार को घुटनों पर देखकर वहां लोग खुद को असुरक्षित महसूस करने लगे। डर का आलम ये कि लोगों ने अपनी दुकानें तक नहीं खोलीं। अब इस बंद को लेकर सोशल साइट फेसबुक पर एक बेटी ने बंद का औचित्य पूछ लिया तो उसे पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। मुझे जानना है कि महाराष्ट्र में ये कौन सी सरकार काम कर रही है। आतंकी सिर्फ वही नहीं है जो पाकिस्तान से आया हो, आतंकी वो भी है, जिसकी वजह से लोग शांति से रह ना पाएं। शिवसैनिक भी किसी आतंकी से कम नहीं है। वो सभी आतंक के मास्टर माइंड हैं तो इन्हें गुमराह करते हैं।

आखिर मे मैं केंद्र सरकार, महाराष्ट्र सरकार और कांग्रेस से जानना चाहता हूं कि अगर उन्होंने शिवसेना सुप्रीमों बाल ठाकरे को राजकीय सम्मान देकर पुलिस की सलामी दिलाई है तो क्या ये माना जाए कि आप सब उनकी सोच और विचारधारा का भी समर्थन करते हैं। आप सबका भी यही मानना है कि मुंबई से उत्तर भारतीयो को खदेड़ दिया जाना चाहिए । इस मामले में अपनी स्थिति साफ करनी चाहिए।

चलते - चलते
इसी हफ्ते एक और गंभीर घटना हुई। उत्तर प्रदेश के एक बड़े शराब माफिया पांटी चढ्ढा को उसके ही भाई ने संपत्ति के विवाद में गोलियों से छलनी कर दिया, हालाकि पांटी के लोगों ने वहीं उसके भाई की भी  हत्या कर दी। पांटी चढ्ढा का जिक्र इसलिए करना जरूरी था कि ये वो सख्श है कि जिसके इशारे पर सूबे की सरकार नाचती है। सरकार चाहे किसी पार्टी की हो, सब पर पांटी बहुत भारी था। धीरे धीरे इसका प्रभाव उत्तराखंड और पंजाब में भी बढ़ता जा रहा था।