Saturday 28 May 2011

अंग्रेजों को गांधी ने नहीं गर्मी ने भगाया



आजकल ऑफिस का माहौल ही बदला हुआ है। आमतौर पर जो लोग देर से ऑफिस आते थे और जल्दी चले जाते थे, आजकल समय से पहले आते हैं और ऑफिस का समय खत्म हो जाने के भी काफी देर बाद जाते हैं। ये सब वो लोग हैं, जिन्हें समय से ऑफिस आने और जाने के लिए प्रबंधन ने कई हथकंडे अपनाए, पर वो कामयाब नहीं हो पाए। लेकिन अचानक ये बदलाव देख प्रबंधन के साथ हम सब भी हैरत में है। सच कहूं तो अंदरखाने ये कवायद भी चल रही है कि पता किया जाए कि आखिर ऐसा क्या हो गया जो ऑफिस पूरे दिन ही भरा भरा रहता है।
अचानक एक दिन सुबह सुबह बॉस का मैसेज मिला, ऑफिस आते ही चैंबर में मुझसे मुलाकात करें। मैं घबरा गया, दो दिन पहले ही तो बॉस से मुलाकात हुई थी, उन्होंने ठीक-ठाक बात की, अब दो दिनों में ऐसा क्या हो गया कि ऑफिस आते ही काम शुरू करने के बजाए पहले उनसे बात करने जाना है। वैसे भी ब्लड प्रेशर का मरीज रहा हूं, काफी मार्निंग वॉक वगैरह करके किसी तरह सबकुछ पटरी पर लाया हूं  अब ये नया बवाल क्या है। कार ड्राइव करने के दौरान तरह तरह के ख्याल दिमाग में आते रहे। खैर जो होगा देखा जाएगा कह कर मन को दिलासा दिलाया और कुछ देर में मैं ऑफिस आ गया। जल्दबाजी में लंच बॉक्स गाडी़ में ही छूट गया।
ऑफिस के अंदर देखा बॉस अपने लैपटाप पर बिजी हैं, बॉडी लैंग्वेज पढ़ने की कोशिश की, सब कुछ सामान्य लग रहा था, खैर मैं उनके चैंबर में घुसा और बोला जी आपने बुलाया था। हां, हां...बैठिए। वो बोले, अरे मुझे कुछ जानना था आपसे, ये आजकल लोगों को क्या हो गया है, समय से पहले ऑफिस आ रहे हैं और समय के बाद भी ऑफिस में काम करते दिखाई दे रहे हैं। मैने कहा कुछ नहीं सालाना इन्क्रींमेंट का समय है, जाहिर है आपकी नजर में थोड़ा नंबर बढा़ना चाहते होंगे। वो बोले, ना ना ऐसा नहीं है। आप पता करके बताइये।
खैर मैं वापस आया और मित्रों से बातचीत शुरू हो गई। अब क्या बताऊं कि, मुझे बॉस ने क्या काम सौंपा है, और किससे पूछें कि भाई आप ऑफिस जल्दी क्यों आते हैं और देर तक क्यों रहते हैं। बॉस का ये सवाल मेरे मन में घूमता रहा। इस बीच लंच टाइम हो गया, हम सभी कैंटीन की ओर रवाना हुए। मुझे ध्यान आया कि मेरा लंच बॉक्स तो गाडी़ में ही रह गया है। गाड़ी से लंच बॉक्स लेकर आया, लेकिन गर्मी की वजह से ये खाना खराब हो चुका था। मित्रों को बताया भाई खाना गर्मी की वजह से खराब हो गया।
लोगों ने ऑफर किया, आइये यहीं बैठिए, हमारे साथ शेयर कीजिए ना। खाना खाने के दौरान बात गर्मी की शुरू हो गई। एक ने कहा गर्मी ने जान निकाल दिया है, मैं तो इसीलिए जल्दी ऑफिस आ जाता हूं और शाम को भी देर तक रहता हूं। सभी मित्रों ने उसकी हां में हां मिलाया और कहा सच है, मैं भी धूप निकलने के पहले ही ऑफिस पहुंच जाता हूं और जब तक मौसम ठीक नहीं हो जाता तब तक घर के लिए नहीं निकलता। हद तब हो गई जब एक मित्र ने ठंडा पानी पीने के बाद कहा कि भाई मुझे तो लगता है कि अंग्रेजों को गांधी ने नहीं गर्मी ने यहां से भगाया। वरना वो कहां दिल्ली छोड़ने वाले थे। सभी ने जोर का ठहाका लगाया और सहमति भी जताई।
लंच के साथ मेरा काम भी बन गया था। आप जानते ही हैं कि बॉस आपको कोई काम दे और आप उसे बिना देरी के कर दें तो आपके नंबर उनकी नजर में बढ़ेंगे ही। बस फिर क्या था लंच के तुरंत बाद उन्हें बताया कि सर दिल्ली की गर्मी से सब बेचैन हैं और इसी लिए जल्दी आते हैं और देर तक ऑफिस में बने रहते हैं। बॉस को सही बात बता तो दिया हूं, लेकिन डरा हुआ मैं भी हूं पता नहीं अब वो कैसे हंटर चलाएं, पता चला लपेटे में मैं भी आ गया। 

Wednesday 25 May 2011

तेल पीती है ये सरकार

चलिए आज बात पेट्रोल और डीजल की कर लेते हैं। वैसे तो मैं इस विषय पर पहले ही सरकार का ध्यान आकृष्ट कराना चाहता था, पर क्या करुं राहुल गांधी के चक्कर में समय खराब हो गया। वैसे ये एक ऐसा विषय है कि तमाम आंकेडबाजी के जरिए भी आपको समझाने की कोशिश की जा सकती है, लेकिन मैं आपको ज्यादा बोर नहीं करना चाहता। सिर्फ वितरण प्रणाली पर मेरे मन मे कुछ सवाल हैं, जो आपके सामने उठाता हूं।

रसोई गैस

पहले बात रसोई गैस की। मुझे लगता है कि ये बात आप समझ लेगें तो आगे के विषय खुद बखुद आसान हो जाएंगे। आपको पता है कि घरेलू उपयोग की रसोई गैस की कीमत व्यावसायिक इस्तेमाल करने वालों के मुकाबले कम है। मतलब होटल और रेस्टोरेंट में जो गैस सिलेंडर इस्तेमाल होते हैं, वो घरेलू गैस सिलिंडर के मुकाबले मंहगे हैं। सरकार का मानना है चूंकि होटल और रेस्टोरेंट के लोग गैस का व्यावसायिक इस्तेमाल करते हैं, इसलिए उन्हें सब्सिडी से अलग रखा गया है। ये अच्छी बात है, मैं क्या आप भी सहमत होंगे।

डीजल

लेकिन यही बात डीजल पर क्यों नहीं। व्यावसायिक पंजीकरण वाले वाहनों को बिना सब्सिडी के डीजल क्यों नहीं दी जानी चाहिए। आज खेतों की सिंचाई के लिए गरीब किसानों को जिस कीमत पर डीजल मिल रहा है, वही कीमत ट्रकों, बसों और अन्य व्यावसायिक इस्तेमाल वाले वाहनो को भी मिल रहा है। वैसे तो केंद्र की सरकार गरीबों की बात करती है, कमजोर तपकों को राहत देने का संकल्प दोहराती है, लेकिन डीजल के मामले में ऐसा भेदभाव क्यों कर रही है।

पेट्रोल

यही बात पेट्रोल पर भी लागू हो सकती है। लग्जरी कार इस्तेमाल करने वाले धनपशुओं को क्यों सब्सिडी वाला पेट्रोल दिया जाना चाहिए। स्कूटी और मोटर साइकिल इस्तेमाल करने वाले स्टूडैट भी 60 रुपये प्रति लीटर पेट्रोल लेते हैं और अंबानी भी यही कीमत चुकाते हैं। छोटी कार इस्तेमाल करने वाले महीने में जितने पैसे का पेट्रोल इस्तेमाल करते हैं, उससे कई गुना तथाकथित बडे लोग ड्राईवर को वेतन देते हैं। जिनके लिए एक से बढ़कर एक मंहगी कार दरवाजे पर खड़ा करना उनके लिए स्टेट्स सिम्बल है, तो उन्हें सब्सिडी क्यों दी जा रही है।

सुझाव

-मुझे लगता है कि वेतनभोगी जो छोटी कार भी लेने के लिए लोन का सहारा लेते हैं, उनकी गाड़ी का पंजीकरण और लग्जरी गाड़ियों के पंजीकरण से अलग होनी चाहिए, और उन्हें सब्सिडी के साथ पेट्रोल और डीजल देना चाहिए।


-एक से अधिक कार वालों को सब्सिडी से तो मुक्त रखना ही चाहिए, बल्कि उनसे अतिरिक्त टैक्स भी लेना चाहिए।


-देश में पेट्रोल और डीजल पर एजूकेशन टैक्स की वसूली होती है। ये टैक्स बच्चों से क्यों लिया जाना चाहिए। मुझे लगता है स्कूटी और अन्य हल्के दुपहिया वाहन को स्टूडैंट वाहन मानकर बच्चों को आधे दाम पर पेट्रोल दिया जाना चाहिए।


-एबूलेंस और अन्य जरूरी वाहनों को भी आधे दाम पर डीजल और पेट्रोल देने का प्रावधान होना चाहिए। अगर गंभीर मरीजों को ट्रेन और सरकारी बसों में रियायत दी जाती है तो एंबूलेंस को क्यों नहीं।

मुझे लगता है कि वितरण प्रणाली में सुधार के जरिए सरकार गरीबों को राहत दे सकती है, पर सच्चाई ये है कि सरकार चुनावों में बड़े लोगों से चंदा वसूलती है, तो भला वो ऐसा कदम कैसे उठा सकते हैं। आइये राहुल गांधी जी गरीबों की इस मुहिम की अगुवाई कीजिए, पार्टी वार्टी, सभी विचारधारा को छोड़ देश का एक बड़ा वर्ग आपकी अगुवाई स्वीकार करेगा। भट्टा परसौल में कुछ लोगों की लड़ाई लड़ने से वो कद नहीं बढ सकता जितना इस मुहिम से जुड़ने से आपका कद बढेगा। लेकिन मुझे पता है आप ऐसा नहीं कर सकते, क्योंकि सरकार ही तेल पीती है।

Tuesday 24 May 2011

भूख

सिर्फ चार लाइनें.........
भूख ने मजबूर कर दिया होगा,



आचरण बेच कर पेट भर लिया होगा।


अंतिम सांसो पर आ गया होगा संयम,


बेबसी में कोई गुनाह कर लिया होगा।

Thursday 19 May 2011

इस गांधी की जुबान फिसलती है !

वैसे तो राहुल गांधी पर बात करने से ज्यादा जरूरी और मुद्दे भी हैं, जिस पर लिखने की इच्छा हो रही थी, और इन मसलों से लोग सीधे जुड़े भी हैं। मेरा हमेशा से ये मानना भी रहा है कि ब्लाग सिर्फ लिखने के लिए ना लिखूं, बल्कि यहां मैं अपने सामाजिक दायित्वों को भी ईमानदारी से पूरा करुं। आम धारणा है कि मीडिया वाले कुछ भी लिख सकते हैं, कुछ भी बोल सकते हैं, लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं है। मीडिया की लक्ष्मण रेखा का अंदाजा आप मीडिया में रहकर ही लगा सकते हैं। पहले अखबारों में रिपोर्टर खबरें लिखते थे और सब एडीटर उस पर हैडिंग लगाकर खबरों को प्रकाशित कर देते थे, अब हालात बदल गए हैं। रिपोर्टर को सुबह हैडिंग थमा दी जाती है और शाम को हैडिंग के अनुरूप खबर लिखनी होती है। इलैक्ट्रानिक मीडिया की बंदिशे तो कुछ और भी ज्यादा है। वैसे तो यहां खबरों से ही कुछ लेना देना नहीं है। टीवी में वही दिखता है, जो बिकता है। इलैक्ट्रानिक मीडिया में राहुल दिख रहे हैं, जाहिर है इस समय वो बिक रहे हैं। बिक रहे हैं कि आशय कुछ और नहीं बल्कि ये कि उनके बारे में लोग रिपोर्ट देखना चाहते हैं। बस इसीलिए मैं भी मजबूर हुआ और सोचा चलो आज फिर एक घंटा खराब कर लेते हैं राहुल के नाम पर।
दरअसल राहुल के चंपुओं की नींद उड़ी रहती है, क्योंकि उनकी जिम्मेदारी है कि राहुल को बड़ा बनाने का कोई भी मौका चूकना नहीं चाहिए। इनके करीबियों को लगा कि दिल्ली से सटे गांव भट्टा परसौल में किसान इस समय आग बबूला हैं, यहां राहुल को फिट किया जा सकता है। बस योजना बनी कि भट्टा गांव जाना है, एसपीजी ने चोर रास्ते का मुआयना किया और अगले दिन राहुल को बाइक से लेकर गांव पहुंच गए। इधर चंपुओं ने मीडिया में खबर उड़ाई कि राहुल यूपी पुलिस की आंख में धूल झोंक कर गांव पहुंचे। खैर ये बात सही है कि और दलों के नेता वहां नहीं पहुंच पाए जबकि राहुल पहुंच गए।
आइये अब मुद्दे की बात करते हैं, राहुल कहते हैं कि हम इस मसले पर सियासत नहीं कर रहे हैं बल्कि किसानों को उनका हक दिलाना चाहते हैं। भाई राजनीति में कोई किसी का दुश्मन नहीं होता है। ऐसे में अगर राहुल सही मायनों में किसानों की समस्या का हल चाहते तो वो इसके लिए यूपी की मुख्यमंत्री मायावती से मिलने का समय मांगते और किसानों के साथ लखनऊ जाते। लेकिन राहुल कहां गए, प्रधानमंत्री मनमोहन के पास। अब प्रधानमंत्री ने यूपी सरकार से रिपोर्ट मांगी है। अब अगर राहुल को प्रधानमंत्री से न्याय नहीं मिला, फिर क्या करेंगे वो, क्या यूएनओ चले जाएंगे।

चलिए राहुल गांधी प्रधानमंत्री से मिल लिए अच्छी बात थी, लेकिन उन्हें मीडिया के सामने किसने कर दिया। जब उन्हें ये नहीं पता कि मीडिया से कितनी और क्या बात करनी है तो फिर उन्हें कैमरे के सामने क्यों लाया गया। ये बात मैं आज तक नहीं समझ पाया। राहुल ने कैमरे पर कहा कि भट्टा परसौल गांव में किसानों को जिंदा जला दिया गया और महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया। ये दोनों बातें उतनी ही गलत हैं, जैसे मैं ये कहूं कि देश के प्रधानमंत्री राहुल गांधी हैं। फिर भी राहुल और उनके चंपू नेता जब कहते हैं, इस मुद्दे पर वो राजनीति नहीं किसानों को न्याय दिलाना चाहते हैं, तो हंसी आती है। अब हालत ये है कि कांग्रेस के बडे नेताओं को डैमेज कंट्रोल के लिए आगे आना पड़ा है।
मुख्यमंत्री मायावती को भी ये कहने का मौका मिल गया कि राहुल ड्रामेबाजी कर रहे हैं। सच तो ये हैं कि अब लगने भी लगा है कि वो ड्रामेबाजी कर रहे हैं। कांग्रेस के दिमागी दिवालियेपन की हालत ये हो गई है कि यूपी कांग्रेस के अधिवेशन में भी वो पूरे समय तक भट्टा परसौल गांव की मुश्किलों पर चर्चा करने तक सिमट कर रह गए। अरे कांग्रेसी मित्रों, यूपी में हाशिए पर हो, कुछ ठोस पहल करो, जिससे विधानसभा में आपकी संख्या कुछ सम्मानजनक हो जाए। पूरे दिन इस अधिवेशन में इतनी झूठ और फरेब की बातें हुई कि भगवान को भी खफा हो गए। इसलिए दिन में तो पांडाल में आग लगी और रात में ऐसा आंधी तूफान आया कि पांडाल ही उड़ गया, और दो दिन के अधिवेशन को एक दिन में समेटना पड़ गया।

राहुल के चंपुओं को एक बात और समझ में आनी चाहिए कि जब वो सरकार पर आरोप लगाते हैं कि अगड़ों के साथ मारपीट की गई, किसानों को जिंदा जलाया गया, महिलाओं के साथ बलात्कार की घटना हुई, तो मायावती के मतदाता और संगठित हो जाते हैं। उन्हें लगता है कि बहन जी जब कानून का डंडा चलाती हैं तो ये नेता लोग बेवजह चीखते हैं। ऐसे में अगर मैं ये कहूं कि राहुल कांग्रेस के लिए कम मायावती के लिए ज्यादा काम कर रहे है तो गलत नहीं है। बहरहाल राहुल जिस तरह के आरोप लगाया करते हैं वो किसी पार्टी के ब्लाक स्तर का नेता लगाए तो बात समझ में आती है, राहुल के मुंह से तो कत्तई अच्छी नहीं लगती।
राहुल ने भट्टा परसौल के मामले में जो कुछ भी किया उससे वरुण गांधी की याद आ गई। वरुण ने अल्पसंख्यकों को लेकर जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया था उससे उनकी न सिर्फ थू थू हुई, बल्कि उन्हें जेल तक जाना पड़ा। अब राहुल गांधी को ले लीजिए, पहले गांव वालों के बीच में उन्होंने कहा कि उन्हें तो भारतीय होने पर ही शर्म आ रही है, और अब जिंदा जलाने और बलात्कार की जो बातें उन्होंने की उसे तो भट्टा गांव के लोग ही सही नहीं मानते। लगता है कि इन दोनों गांधियों को जुबान फिसलने की बीमारी है।

चलते चलते..
मेरे कहने का तरीका गलत हो सकता है, पर आप वो ही समझें जो मैं आपके साथ शेयर करना चाहता हूं। कांग्रेस में चमचागिरी की हालत ये हो गई है कि पार्टी के एक ठीक ठाक नेता ने बातचीत में मुझसे कहा कि मैं राहुल गांधी का बायां हाथ बनना चाहता हूं। मैं परेशान कि लोग तो दाहिना हाथ बनने की बात करते हैं, ये बायां क्यों। मुझसे रहा नहीं गया और मैने पूछ लिया.. भाई आप बाया हाथ क्यों बनना चाहते हैं। उन्होंने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया कि श्रीवास्तव जी बाएं हाथ की पहुंच कहां कहां होती है, आप नहीं जानते। खैर सियासत है..कुछ भी संभव है।

Tuesday 17 May 2011

सियासी गलियारे की हकीकत

सत्ता के गलियारे में पिछला 15 दिन काफी उतार चढाव वाला रहा। आइये हर मामले में आपको छोटी छोटी जानकारी देता हूं। बात करेंगे पश्चिम बंगाल से लेकर तमिलानाडु और कर्नाटक तक की। पेट्रोल की कीमतों के बारे में भी। सबसे पहले बात पश्चिम बंगाल के लाल किले को ढहाने वाली ममता बनर्जी की।

चलिए छोटी सी बात कर ली जाए ममता बनर्जी को लेकर, क्योंकि अब उन्हें देनी है अग्निपरीक्षा। ममता तेज तर्रार नेता हैं, अगर उन्हें आयरन लेडी कहें तो गलत नहीं होगा। लेकिन मेरा मानना है कि वो सत्ता के खिलाफ संघर्ष को तो कुशल नेतृत्व दे सकती हैं, सरकार का नेतृत्व करना उनके लिए किसी चुनौती से कम नहीं हैं। सियासत मे तरह तरह के समझौते करने पड़ते हैं, लेकिन ममता किसी तरह का समझौता कर पाएंगी, उनके व्यक्तित्व से तो नहीं लगता है। इतना ही नहीं वो अपनी पार्टी के नेताओं पर आंख मूंद कर भरोसा भी तो नहीं करतीं हैं।

केंद्र की सरकार में जब ममता बनर्जी ने शामिल होने का फैसला किया तो उनके सांसदों की संख्या के हिसाब से कम से कम छह लोगों को कैबिनेट मंत्री बनाया जा सकता था, लेकिन पार्टी नेताओं पर भरोसा ना करने वाली ममता ने अपनी पार्टी के किसी भी नेता को कैबिनेट मंत्री नहीं बनाया। केंद्र में वो अकेले कैबिनेट मंत्री रहीं। पार्टी के बाकी नेताओं को मन मसोस कर राज्यमंत्री पर ही संतोष करना पड़ा। टीएमसी के नेता ममता के खिलाफ मुखर होकर बोले तो नहीं, लेकिन ये पीड़ा उनकी पार्टी के कई नेताओं में देखी गई।

अब ममता को पश्चिम बंगाल में पूरा मंत्रिमंडल बनाना है। ये काम उनके लिए एक बड़ी चुनौती होगी। ममता की ईमानदारी की बात होती है तो लोग उन्हें पूरे नंबर देते हैं। सूती साड़ी और हवाई चप्पल को वो सादगी से कहीं ज्यादा हथियार के रूप में इस्तेमाल करती हैं। बड़ी बात ये है कि क्या ममता अपने मंत्रिमंडल में शामिल लोगों को भी यही सलाह देगी कि वो सादगी से रहें। तड़क भड़क में ना पड़ें। मुझे लगता है कि ऐसा वो नहीं कर पाएंगी, क्योंकि उनकी पार्टी में शामिल 80 फीसदी से ज्यादा लोग डिजाइनर ड्रेस में भरोसा करते हैं। ममता बनर्जी को अब दिखावे से ज्यादा प्रैक्टिकल होना पडेगा। चलिए अभी से कुछ कहना जल्दबाजी होगी, जल्दी ही सब सामने आ जाएगा। पहले तो मंत्रिमंडल का गठन होने दें, देखते हैं वो अपने छवि वाले नेता कहां से लाती हैं। वैसे ममता जी...

राजनीति में अक्सर जूते खाने पड़ते हैं,

कदम कदम पर सौ सौ बाप बनाने पड़ते हैं।

और आपसे ऐसा कम से कम हमें उम्मीद नहीं है। इसलिए ना जाने क्यों मुझे शक है कि आप सरकार का नेतृत्व कैसे कर पाएंगी।

तमिलनाडु में डीएमके और एआईएडीएमके कहने को तो राजनीतिक दल हैं, लेकिन इनका एक दूसरे से व्यवहार सांप और नेवले जैसा है। दोनों एक दूसरे को फूटी आंख नहीं देखना चाहते। ये राजनीतिक लड़ाई को व्यक्तिगत लड़ाई की तरह लड़ते हैं, जिसे जब मौका मिलता है वो एक दूसरे को नीचा दिखाने, यहां तक की उसे जेल भेजने से भी पीछे नहीं रहते।

टू जी स्पेक्ट्रम घोटाले में ए राजा को जेल हो जाने के बाद डीएमके की तमिलनाडु में काफी थू थू हुई। इसके साथ ही विधानसभा चुनाव में पार्टी हाशिए पर पहुंच गई। मुख्यमंत्री पद का शपथ लेने के बाद जयललिता पूरी तरह फार्म में आ चुकी हैं, अभी वो उन वादों को पूरा कर रही हैं, जो उन्होंने जनता से किए थे। उसके बाद उनका अपना एजेंडा शुरू होगा, एजेंडा साफ है ना सिर्फ करुणानिधि बल्कि पूरे परिवार को सबक सिखाना। वैसे टू जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच कर रही सीबीआई करुणानिधि के घर तक दस्तक देने को तैयार बैठी है। ऐसे में हो सकता है कि जयललिता कुछ इंतजार कर लें कि जब सीबीआई ही इनकी दुर्गत करने में लगी है तो वो क्यों अपने हाथ गंदे करें। वैसे इतना धैर्य देखा तो नहीं गया है जयललिता में।

छूटल घाट धोबनिया पइलस,

अब त पटक-पटक के धोई,

कहो फलाने अब का होई..    हाहाहाहा चचा करुणानिधि


कर्नाटक की अगर बात करें तो समझ में नहीं आता कि वहां सरकार बीजेपी नेता युदुरप्पा की है या फिर कांग्रेसी राज्यपाल हंसराज भारद्वाज की। हंसराज की छवि एक ऐसे नेता की रही है जो हमेशा विवादों में रहना पसंद करते हैं। केंद्र में कानून मंत्री रहने के दौरान भी वो हमेशा सुर्खियों में रहे। भारद्वाज जब से कर्नाटक पहुंचे है, वहां की सरकार को अस्थिर करने मे लगे हुए हैं। ये सही बात है कि कर्नाटक में बीजेपी नेताओं के बीच आपस में ही कुछ अनबन है, जिसके चलते उठा पटक होती रहती है। लेकिन इसका ये मतलब कत्तई नहीं कि कांग्रेसी राज्यपाल राजभवन में ही सियासी खेल शुरू कर दें।

सरकार बहुमत में है या नहीं इसका फैसला विधानसभा में ही होना चाहिए। अगर ये राजभवन में तय होने लगा तो हमारा संघीय ढांचा चरमरा जाएगा। आपको याद होगा तीन चार महीने पहले भी हंसराज भारद्वाज सरकार को बर्खास्त करने और यहां राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश कर चुके हैं और तमाम विचार विमर्श के बाद गृहमंत्रालय ने हंसराज की सिफारिश को खारिज कर दिया। अब एक बार फिर उन्होंने सरकार को बर्खास्त करने की सिफारिश की है। इस बार तो वो सिफारिश करने के पहले दिल्ली में भी जोड़ तोड़ करके कर्नाटक पहुचे। पहले यहां उन्होंने गृहमंत्री पी चिदंबरम से बात की फिर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिले। वो दोनों नेताओं का समर्थन चाहते थे। हालाकि बीजेपी जिस आक्रामक मुद्रा मे है, उससे कर्नाटक की सरकार को बर्खास्त करने की हिम्मत केंद्र सरकार जुटा पाएगी, लगता नहीं है। वैसे भी सरकार के इस फैसले को संसद में भी पास कराना होगा और सरकार को पता है उच्च सदन यानि राज्यसभा में उनकी संख्या कम है, ऐसे मे उनका ये कदम आत्मघाती साबित हो सकता है। लेकिन इस पूरे एपीसोड में राज्यपाल हंसराज भारद्वाज का काला और गंदा चेहता जरूर सामने आ गया है।

हां अगर चलते चलते पेट्रोल की बात ना करुं तो सियासी गलियारे की गतिविधिया अधूरी रह जाएंगी। ये सही है कि अंतर्रराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमते आग उगल रही हैं, लेकिन सिर्फ ये कह कर सरकार अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकती। आपको ये जानकार हैरत होगी कि जब पेट्रोल के दाम बढ़ रहे हैं तो जेट फ्यूल (हवाई जहाज में भरा जाने वाला ईधन) के दाम कम हो रहे हैं। जब हम कहते हैं कि सरकार बडे़ लोगों के मुनाफे की बात करती है तो गलत थोड़े कहते हैं। ये उसका उदाहरण है। वैसे तेल में लगी आग के लिए केंद्र और राज्य सरकारें दोनों जिम्मेदार हैं। आपको बता है कि 60 रुपये लीटर पेट्रोल बेचने पर आयल कंपनियों के खाते में सिर्फ 28 रुपये आते हैं और बाकी के 32 रुपये हम केंद्र और राज्य सरकार के विभिन्न प्रकार के टैक्स भरते हैं। गरीबों और मध्यम श्रेणी के लोगों को कैसे राहत दी जा सकती है, इस पर हम अलग से फिर चर्चा करेंगे।

Thursday 12 May 2011

राहुल तब शर्म क्यों नहीं आई..

आज बात खालिस सियासत की। दिल्ली से सटे ग्रेटर नोएडा के किसान उत्तर प्रदेश सरकार से खफा हैं, वजह है उनकी कीमती जमीन का औने पौने दाम में मायावती सरकार अधिग्रहण कर रही है। किसानों की मांग है कि उनकी जमीन का उन्हें वाजिब दाम मिलना चाहिए। किसानों की मांग जायज है, उन्हें उनका हक मिलना ही चाहिए।

अपने हक की लड़ाई किसान महीनों से लड़ रहे हैं, पर तब राहुल ही नहीं किसी भी सियासी दल ने उनका साथ नहीं दिया। सप्ताह भर पहले जब यहां माहौल बिगड़ा, पुलिस और किसानों के बीच फायरिंग में चार लोगों की मौत हो गई और डीएम एसपी भी घायल हो गए तो राजनेताओं ने किसानों के गांव की ओर रुख किया। माहौल ना बिगड़े इसके लिए सूबे की सरकार ने धारा 144 लगा दी, इसका मतलब पांच व्यक्ति से ज्यादा लोग गांव के आसपास जमा नहीं हो सकते। इसके बावजूद यहां चौधरी अजित सिंह ने जाने की कोशिश की तो पुलिस ने उनका रास्ता रोक लिया। इसी तरह बीजेपी नेता राजनाथ सिंह और समाजवादी पार्टी के नेता शिवपाल यादव को भी वहां नहीं जाने दिया गया। राहुल गांव के चोर रास्ते से होते हुए वहां पहुंचने में कामयाब हो गए।

राहुल गांधी का लड़कपन

जी हां इसे तो राहुल का लड़कपन ही कहा जाएगा, क्योंकि वो एसपीजी प्रोटेक्टेड नेता हैं और उन्हें कहीं भी जाने के पहले वहां की सूबे की सरकार को बताना चाहिए, जिससे उनकी सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम किया जा सके। लेकिन राहुल ने ऐसा नहीं किया। बात काल्पनिक हो सकती है, लेकिन अहम है कि अगर यहां राहुल के साथ कुछ भी हो जाता तो इसकी जिम्मेदारी किसकी होती। जाहिर है यूपी की सरकार तो हाथ खड़े कर देती और एसपीजी को जवाब देते नहीं बनता। वैसे तो गांव में मीडिया से बात करने की जिम्मेदारी कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने संभाल रखी थी, लेकिन गांव वालों से बात करते हुए राहुल ने कहा कि इस गांव में आकर जो हालात हमने देखा है, उससे हमें भारतीय होने पर शर्म आ रही है। मैं राहुल की बात से इत्तेफाक नहीं रखता हूं। क्योंकि मैं जानता हूं कि कई ऐसे मौके आए जब राहुल को भारतीय होने पर नहीं उस पार्टी का नेता होने पर शर्म आनी चाहिए थी जो उन्हें नहीं आई।

तब शर्म क्यों नहीं आई राहुल

1. जी मैं बताता हूं राहुल को उस समय शर्म क्यों नहीं आई, जब कारगिल के शहीदों की विधवाओं के लिए मुंबई में बने आदर्श सोसायटी के फ्लैट कांग्रेस नेताओं ने हथिया लिए। इसमें कांग्रेस के एक दो नाम नहीं कई नामचीन नेता हैं। यानि पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण, विलासराव देशमुख, सुशील कुमार शिंदे और अभी के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज सिंह चव्हाण शामिल हैं। इतने कांग्रेसियों ने जब विधवाओं के फ्लैट कब्जाए तो कांग्रेसी होने पर शर्म क्यों नहीं आई।

2. कॉमनवेल्थ घोटाले में कांग्रेस नेता सुरेश कलमाडी को जेल जाना पड़ा। करोड़ों रुपयों की हेराफेरी में कलमाडी के बाद अब दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को भी नोटिस हो चुका है। गवर्नर पर भी इस गोरखधंधे में शामिल होने की बात की जा रही है। इसके अलावा जांच अधिकारी जयपाल रेड्डी के मंत्रालय की भूमिका को भी खंगाल रहे हैं। तब राहुल को शर्म क्यों नहीं आई।

3.टू जी स्पेक्ट्रम के आवंटन में कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार के एक मंत्री ए राजा जेल में हैं। उन पर हजारों करोड़ रुपये के घोटाले का आरोप है। इस पर उन्हें शर्म क्यों नहीं आई।

4. देश का लाखों करोड़ रुपया देश के धनपशुओं ने विदेशी बैंकों में जमा कर रखे हैं। बीजेपी के साथ ही तमाम सामाजिक संगठन कालेधन को वापस लाने की मांग कर रहे हैं और वित्तमंत्री ऐसा करने से हाथ खड़े कर रहे हैं। इस पर भी तो उन्हें शर्म आ सकती है। क्यों नहीं शर्म आई?

5. राहुल जी हालत ये हो गई कि सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ सामाजिक संगठनों के साथ पूरा देश खड़ा हो गया। तब कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार घुटने टेकते हुए भ्रष्टाचार के खिलाफ कानून का मसौदा बनाने को तैयार हुई। देश भर में आपकी पार्टी की थू थू हुई, फिर भी आपको शर्म नहीं आई।

मैं मानता हूं कि आप संवेदनशील है, आप गरीबों के दुख दर्द को समझने की कोशिश करते हैं। रामराज्य की परिकल्पना आपके दिमाग में है। अगर यूपी के किसानों को उनकी जमीन का वाजिब हक ना मिलने पर आपको भारतीय होने पर ही शर्म आ रही है तो महाराष्ट्र में जहां आपकी सरकार है वहां विदर्भ में तमाम किसान आत्महत्या कर रहे हैं। विदर्भ में भी यही बात आपने क्यों नहीं कहा कि यहां की हालत देख आपको शर्म आ रही है। ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिसका जवाब देश की जनता आप से जानता चाहती है।

राहुल भारतीय होने पर शर्म नहीं गर्व कीजिए

अगर मैं ये कहूं की आजाद भारत की ये सबसे भ्रष्ट सरकार है तो गलत नहीं होगा। मुझे लगता है कि आप मेरी बात से सहमत होंगे और राहुल भारतीय होने पर शर्म की बजाए गर्व कीजिए। जहां खामियां है वो दूर होनी चाहिए, ना कि शर्म से पीछे हटना चाहिए।





Tuesday 10 May 2011

पायलटों ने कोर्ट को दिखाया ठेंगा




जाटों ने आरक्षण के लिए ट्रेनों को बंधक बनाया तो एयर इंडिया के पायलटों ने लगभग 10 दिन तक हवाई यात्रा करने वाले यात्रियों को बंधक बनाए रखा। उत्तर प्रदेश और हरियाणा की सरकार ने जाटों के खिलाफ किसी तरह की कार्रवाई करने से साफ इनकार कर दिया। वजह और कुछ नहीं सिर्फ जाट वोट नाराज ना हो जाएं कि अगले साल विधानसभा चुनाव में वो सरकार के खिलाफ बिगुल बजा दें। इसलिए प्रदेश की सरकारों ने जाटों से अंदरखाने समझौता किया कि वो ट्रेन रोकेंगे, सड़कों पर वे कोई उपद्रव नहीं करेंगे। अब ट्रेन तो केंद्र की और ममता की है, लिहाजा सूबे की सरकार ने इस आंदोलन से आंख मूंद लिया।

हालत ये हो गई रोजाना दर्जनों ट्रेन रद्द होने लगी, लेकिन केंद्र और राज्य की सरकारें खामोश रहीं। आखिरकार इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बैंच ने जाटों के आंदोलन को गंभीरता से लिया और केंद्र के साथ राज्य सरकार को फटकार लगाने के साथ ही आंदोलनकारियों से सख्ती से निपटने के आदेश दिए। कोर्ट के आदेश के बाद अगले ही दिन जाटों ने रेल पटरी को खाली कर दिया।

अब बात एयर इंडिया के पायलटों की। इंडियन एयर लाइंस और एयर इंडिया के विलय के बाद पायलटों की मांग थी जब दोनों कंपनियों का विलय हो गया है तो वेतन में भेदभाव क्यों है। इस महत्वपूर्ण मांग को लेकर वो लंबे समय से प्रबंधन को हड़ताल की नोटिस दे रहे थे। इसके बाद भी प्रबंधन ने बातचीत से मसले को सुलझाने का प्रयास नहीं किया। ऐसे में मजबूर होकर एयर इंडिया के पायलट हड़ताल पर चले गए। इससे बड़ी संख्या में हवाई सेवाएं प्रभावित हुई। रोजाना 90 फीसदी फ्लाइट रद्द की जाने लगी। एयर इंडिया को करोडों का नुकसान हुआ, बाद में सख्ती दिखाते हुए पहले सरकार ने सात पायलटों को बर्खास्त किया, यूनियन की मान्यता खत्म की और हड़ताल को अवैध घोषित कर दिया। इतना ही नहीं हड़ताली पायलटों पर एस्मा लगाने की बात हुई तो पायलटों ने साफ कर दिया कि वो काम पर नहीं लौटेगें भले जेल चले जाएं।


दिल्ली हाईकोर्ट को लगा कि अब इस मामले में उसे हस्तक्षेप करना चाहिए और कोर्ट ने तत्काल हड़ताल खत्म करने आदेश दिया। पर पायलटों का दिमाग सातवें आसमान पर था, लिहाजा उन्होंने कोर्ट का आदेश मानने से साफ इनकार कर दिया।
पहले तो सरकार सख्त दिखने की कोशिश करती रही ओर कहा कि हड़ताल खत्म किए बगैर कोई बातचीत नहीं होगी। लेकिन जब कोर्ट का आदेश पायलटों ने मानने से इनकार कर दिया और उनके खिलाफ अवमानना की कार्रवाई भी शुरू हो गई तो सरकार बैक फुट पर आ गई। उसे लगा कि एयर इंडिया के साथ ही बेवजह सरकार की भी फजीहत होगी। इसलिए हड़ताली पायलटों से अचानक बातचीत शुरू कर दी गई और उन्हें भरोसा दिलाया गया कि उनकी मांगों पर ना सिर्फ गंभीरता से विचार होगा बल्कि उसे पूरा भी किया जाएगा। इतना ही नहीं यूनियन की मान्यता बहाल करने और बर्खास्त पायलटों को भी सेवा में लेने का भरोसा दिया गया।

सरकार के झुकने के बाद पायलटों की हड़ताल खत्म हो गई। हड़ताल भले खत्म हो गई, लेकिन बड़ा सवाल ये कि हड़ताल के दौरान यात्रियों को जो मुश्किल हुई उसकी जिम्मेदारी कौन लेगा, एयर इंडिया को करोडों की चपत लगी इसकी जिम्मेदारी किसकी है। अगर पायलटों की बात माननी ही थी तो जब हड़ताल की नोटिस दी गई उस समय बातचीत क्यों नहीं की गईं। और सबसे बड़ा सवाल ये कि पायलटों ने जो कोर्ट के आदेश को ठेंगा दिखाया इसके लिए कौन जिम्मेदार है।

जहां तक मुझे याद है कि पहली बार किसी संगठन ने कोर्ट के आदेश को ठुकराया है और अपनी जिद्द पर अडे रहे। फिर भी केंद्र सरकार कोशिश कर रही है कि हड़ताली पायलटों पर अवमानना की कार्रवाई को किसी तरह रोका जाए। सच ये है कि अगर पायलटों को अवमानना की कार्रवाई से मुक्त किया गया तो ये एक नजीर बन जाएगी और आने वाले समय में इसी तरह लोग कोर्ट के आदेश को ठेंगा दिखाते रहेंगे, इसलिए कोर्ट के काम में किसी तरह की दखलअंदाजी नहीं होनी चाहिए।





Friday 6 May 2011

प्लीज... इस कविता को पूरा कीजिए..


जी, हां मुझे आपकी मदद चाहिए। मैं आगे नहीं सोच पा रहा हूं। मैं चाहता हूं आप सभी मित्रों की मदद से इसे आगे बढ़ाऊं। मुझे भरोसा के आप सभी मित्र कम से कम दो दो लाइन जरूर सुझाएंगे।



कौन सुनेगा कविता मेरी,

किसको है अवकाश।

चला जा रहा हूं धरती पर,

देख रहा आकाश ।



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आपके सहयोग की अपेक्षा है।

Wednesday 4 May 2011

वाह रे दिल्ली वालों......



अक्सर महानगर वाले यूपी और बिहार को कोसते नजर आते हैं। दिल्ली में गंदगी क्यों है, जवाब मिलता है ये यूपी और बिहार वालों की वजह से। मंहगाई क्यों बढ़ती जा रही है जवाब मिलता है यूपी और बिहार वाले बहुत ज्यादा खाते हैं, इसलिए मंहगाई है। महानगर में मकानों का किराया बहुत ज्यादा बढ रहा है, इसके लिए भी जवाब मिलता है कि यूपी और बिहार वाले अपना घर छोड़ कर महानगरों का रुख कर रहे हैं, इसलिए किराये बढ़ रहे हैं। महानगरों में अपराध बढ रहे हैं, फिर रटा रटाया जवाब यूपी और बिहार की वजह से। जनसंख्या बढने के लिए भी यूपी और बिहार वाले जिम्मेदार। कहने का मतलब ये कि महानगरों में जितनी भी बुराइयां और खामियां है सबके लिए यही यूपी और बिहार वाले जिम्मेदार हैं। चूंकि दिल्ली की सियासत में यूपी और बिहार के लिए आपत्तिजनक टिप्पणी करके किसी भी नेता के लिए चैन की नींद लेना संभव नहीं है, इसलिए यहां तो फिर भी सियासी कुछ बोलने के पहले सौ बार सोचते हैं, लेकिन मुंबई में तो लोग यूपी और बिहार के लोगों पर हमला करने से भी पीछे नहीं रहते।

पर महानगर में रहने वाले कभी ये भी सोचते हैं कि उनके बारे में लोगों की राय क्या है। पिछले दिनों मुझे उत्तराखंड में मसूरी से करीब सौ किलोमीटर और ऊपर चकराता जाना पड़ा। वापसी शनिवार को हो रही थी। वीकेंड होने की वजह से पूरी दिल्ली मसूरी में कैंम्पटीफाल में डेरा डाले हुए थी। इन दिल्ली वालों ने लगभग 1500 से ज्यादा कारों को बेतरतीब जहां तहां खड़ी करके पहाड़ के पूरे रास्ते को जाम कर दिया। यकीन मानिये 8 घंटे से भी ज्यादा समय इस जाम में और लोगों के साथ मैं भी फंसा रहा।

इन गाड़ियों में दिल्ली का नंबर देख हर आदमी दिल्ली वालों को सिर्फ कोस ही नहीं रहा था, बल्कि वो ऐसी गालियां दे रहे थे, जिसे मैं यहां लिख भी नहीं सकता। मैं पूछता हूं दिल्ली वालों, दिल्ली में लेन तोड़ने पर जुर्माना भरते हो, रेड लाइट तोड़ने पर जुर्माना भरते हो, चलती गाड़ी में मोबाइल से बात करने में जुर्माना भरते हो। इसलिए दिल्ली में तो ट्रैफिक नियमों का पालन बखूबी करते हो। लेकिन दिल्ली से बाहर निकलते ही आखिर हो क्या जाता है जो लोगों की गाली सुनते हो। शर्म करो....